बालक की शिक्षा उसकी मातृ भाषा के माध्यम से होनी चाहिए। शिक्षा प्राप्त करते समय बालक को पूर्ण स्वतंत्रता(प्रकृति की गोद में शिक्षा )मिलनी चाहिए। उनका यह मानना था कि बालक की रचनात्मक प्रवृत्तियों के विकास के लिए आत्म प्रकाशन का अवसर दिया जाना चाहिए। उनका यह मानना था कि बालक को प्राकृतिक वातावरण में स्वतंत्रता पूर्वक स्वयं करके सीखने(लर्निंग बाइ डूइंग) का अवसर मिलना चाहिए। वास्तव में टैगोर यह चाहते थे कि शिक्षा द्वारा विद्यार्थी में ऐसी क्षमताएं विकसित हो जाये कि वह प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके और समाज के साथ मनुष्यता का व्यवहार कर सके। कुल मिलाकर यह बात कही जा सकती है कि टैगोर के शिक्षा उद्देश्यों में क्रमश: शारीरिक व मानसिक विकास के उद्देश्य, शिक्षा और जीवन में सामंजस्य स्थापित करने का उद्देश्य, आध्यात्मिक संस्कृति का विकास करना, सत्य और एकता को कायम रखने के साथ ही मनुष्य का पूर्ण विकास करना शामिल था। उन्होंने पाठ्यक्रम में इतिहास, भूगोल, साहित्य, प्रकृति अध्ययन के साथ ही नाटक, भ्रमण, बागवानी, क्षेत्रीय अध्ययन, प्रयोगशाला कार्य, ड्राइंग, मौलिक रचना के साथ ही अतिरिक्त पाठ्यक्रम क्रियाओं में खेलकूद, समाज सेवा, छात्र स्वशासन आदि को भी शामिल किया था। उन्होंने बालक के सभी पक्षों का विकास करने के उद्देश्य से पाठ्यक्रम को व्यापक बनाए जाने की बात कही थी। जानकारी देना चाहूंगा कि रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा निर्मित शांतिनिकेतन और विश्व भारती का पाठ्यक्रम विषय केंद्रित न होकर बाल केंद्रित रखा गया था और वहां हमें विभिन्न प्रकार के क्रियाएं देखने को मिलतीं हैं जैसे प्रातः कालीन प्रार्थना, सरस्वती यात्राएं, गायन, नृत्य, ड्राइंग, परिभ्रमण, प्रयोगशाला के कार्य, छात्रों का स्वशासन, खेलकूद, समाज सेवा आदि। टैगोर बालकों के नैतिक और आध्यात्मिक विकास पर बल के पक्षधर थे। वे बालक के संपूर्ण विकास, उनमें राष्ट्रीयता का विकास, बच्चों में सामाजिकता का विकास के पक्षधर थे। टैगोर के अनुसार शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य बालक में अन्तर्राष्ट्रीय समाज के प्रति चेतना उत्पन्न करना था। वास्तव में, वे विश्व में एकता स्थापित करना चाहते थे। वास्तव में टैगोर यह चाहते थे कि शिक्षा के द्वारा बालक को अन्तर्राष्ट्रीय समाज के बन्धन में बाँधा जाय जिससे वह अन्तर्राष्ट्रीय समाज के विकास हेतु प्रयास करता रहे। उनका मानना था कि शिक्षण विधि को बालक की स्वाभाविक, रूचियों, और आवेगों पर आधारित होना चाहिए। शिक्षण विधि में वाद-विवाद और प्रश्नोत्तर का प्रयोग करना चाहिए। भ्रमण विधि को वे शिक्षण की सर्वोत्तम विधि मानते थे। टैगोर शरीर और मस्तिष्क की शिक्षा के लिए क्रिया को बहुत आवश्यक मानते थे। उनके अनुसार बालक को किसी हस्तकला में अवश्य प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। वे पेड़ पर चढ़ने, कूदने, बिल्ली या कुत्ते के पीछे दौड़ने, फल तोड़ने, हँसने, चिल्लाने, ताली बजाने, अभिनय करने को शिक्षण की आवश्यक प्रविधि या युक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। वे विभिन्न विषयों यथा – जीव विज्ञान, विज्ञान, खगोल विद्या, भूगर्भ विद्या आदि की शिक्षा प्राकृतिक पर्यावरण में देना चाहते हैं, जिसमें बालक स्वानुभव, रुचि तथा करके सीख सकता है। इस प्रकार शिक्षण की वे मनोवैज्ञानिक विधियों का समर्थन करते थे। शिक्षक के संदर्भ में टैगोर के विचार यह थे कि एक शिक्षक को ज्ञानी, संयमी तथा बच्चों के प्रति सदैव समर्पित होना चाहिये। उनके अनुसार शिक्षा बिना शिक्षक के सम्भव नहीं है। उनका यह मानना था कि मनुष्य केवल मनुष्य से ही सीख सकता है। अतः शिक्षा व्यवस्था का मुख्य आधार शिक्षक ही है। टैगोर ने शिक्षण विधि की तुलना में शिक्षक को बहुत अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हुए लिखा है, ‘शिक्षा केवल शिक्षक के द्वारा और शिक्षण विधि द्वारा कदापि नहीं दी जा सकती है।’ उनका मानना था कि एक शिक्षक को कभी भी पूर्वाग्रही, संकीर्ण, असहिष्णु, आधीन और अहंकारी नहीं होना चाहिये। टैगोर शिक्षक को शिक्षा व्यवस्था का मुख्य आधार मानते हैं। वास्तव में रविन्द्र नाथ टैगोर जी का यह मानना था कि एक शिक्षक बालक की पवित्रता में विश्वास करते हुए उसके साथ हमेशा प्रेम तथा सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें। वह पुस्तकीय ज्ञान पर ध्यान कम दे तथा ऐसा वातावरण तैयार करें जिसमें क्रियाशील रहते हुए बालक अपने नीति अनुभव द्वारा स्वयं सीखता रहें। शिक्षकों को यह चाहिए कि वे बालकों को रचनात्मक कार्य करने के लिए हमेशा उत्तेजित और प्रोत्साहित करते रहें।
(आर्टिकल का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।)
सुनील कुमार महला,
स्वतंत्र लेखक व युवा साहित्यकार
पटियाला, पंजाब