होली इस बार सात मार्च को तो धुलंडी(रंग खेलने का दिन) आठ मार्च को है। वास्तव में,होली का त्योहार ऐसे समय में आता है जब वातावरण में एक नवीन ऊर्जा समाई होती है, प्रकृति अपने रंगों से निखर रही होती है, न सर्दी, न ही गर्मी। ऐसे में प्रत्येक व्यक्ति का मन मयूर की भांति चहकने लगता है, महकने लगता है। होली पर हर तरफ रंगों की बरसात होती है, पर्यावरण की छटाओं में रंग ही रंग छा जाते हैं, घुल जाते हैं। रंगों की महक हमारे तन-मन को स्फूर्ति, आनंद, उल्लास व ऊर्जा से परिपूर्ण कर देती है। हमारे देश की संस्कृति के सभी पर्व ,त्योहार आदमी को आदमी से जोड़ते हैं, होली भी एक ऐसा ही त्योहार है जो हमारे रिश्तों को जोड़ता है, सहेजकर रखता है, हमें आपसी मजबूत बंधन में बांधता है। होली के रंग बिखरते हैं तो मन जुड़ते हैं, टूटते नहीं हैं। लेकिन अब विरले ही होली के त्योहार पर धमाल व राजस्थानी लोक गीत, स्वांग, हंसी ठिठौली सुनाई दिखाई देतीं हैं। समय, काल व परिस्थितियों के अनुसार होली के त्योहार को मनाने के तौर तरीकों में काफी आमूल चूल परिवर्तन देखने को मिले हैं। आपने महसूस किया होगा कि आजकल पहले की तरह गांवों, शहरों की गली मोहल्लों में ” हरे ओ भरदे मायरियो नरसिंह जी थारी नान्ही बाई गो भरदे मायरियो…!”, ” एहे गांजो पीज्या रे सदा रा शिव भोला अमली रे…!”, “लिछमण क रे बाण लग्यो र शक्ति लिछमण क रे…!”, ” हरे नित बरसो रे मेहवा म्हारे बागड़ म रे…!” कोनी मानै ये यशोदा थारो बनवारी रे कोनी मानै ये…!” लेहरो ल्यादै रै नणदी का बीरा लैरो ल्यादै रे…”, ” चालो देखण न बाईजी थारो बीरो नाचै रे चालो देखण न…!”, “रूत आई रे पपीया तेरं बोलण गी रै रूत आई रे…!” “कठै सूं आई सूंठ…कठै सूं आयो जीरो…!”, “फागुन आयो रे रसिया…!” ,”सत राखो रे भाईड़ा…जग में दो दिन रहणो रे..सत राखो रे…!” जैसी अनगिनत धमालें कम ही सुनने को मिलती हैं। पहले के जमाने में गांव की गली गली, कूचे कूचे में धमाल की धमक गूंजती थी। होली के त्योहार के आगमन से बीस पच्चीस दिन पहले यहां तक कि महीनों महीनों पहले ही धमाल गाने बजाने वाले डफ,चंग, बांसुरी से लैस नजर आने लगते थे, आपसी प्रेम, सद्भाव, भाईचारे की मिसाल देखने को मिलती थी। लेकिन आज कहीं कहीं ही इसकी झलक देखने सुनने को मिलती हैं और इसको भी गांव घरों के कुछ बुजुर्ग लोग ही आज तलक जिंदा रखे हुए हैं। यह बहुत ही चिंतनीय है कि आज की युवा पीढ़ी को धमाल, चंग, डफ तक की जानकारी तक नहीं है। होली के रंग बिना चंग, बांसुरी, धमाल के फीके हैं। आज वसंत का संदेशवाहक यह त्योहार बेरंग, बेदम हो चला है, आज फाल्गुनी धमाल केवल वीडियो, कांपैक्ट डिस्क व टीवी, मोबाइल में बंद हो गई है। पहले गांवों में वसंत पंचमी से ही रंग आसमां में उड़ने लगते थे। रास,नृत्य, संगीत, हंसी ठिठौली में बड़ा ही आनंद समाया हुआ था। लोग एक दूसरे के गले मिलते थे, गालों पर गुलाल,अबीर नजर आता था, मन मयूर, पपीहा बनता था। खेतों में सरसों के साथ दिल भी खिलते थे। आजकल बाग बगीचे भी नहीं रहे, जो प्राकृतिक छटा होली के रंगों के साथ और खिले। आज भौतिकता के रंग में डूबा आदमी सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में नहीं डूबता। चारों तरफ़ अब पहले जैसी रंगों की फुहार नहीं फूटती। हमारी दुकान का गुझिया खाने अब लोग कम ही आते हैं। आज भी हम अपनी दुकान में होली के दिन गुझिया और मावे की मिठाइयां लोगों को खिलाते हैं लेकिन आजकल पहले की तरह होली के दिन सुबह से शाम तक धमाल की टोलियां नहीं आती। पहले ढफ घर घर में मिलते थे। बूढ़े, जवानों सभी की जबान पर धमाल का रस था। आज की पीढ़ी को धमाल का अर्थ तक मालूम नहीं है। आजकल धमाल के स्थान पर डीजे बजते हैं, दारू शारू पीकर युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति, अपने संस्कारों को भूल रहे हैं। आज समाज व समय अत्यंत तेजी के साथ बदल रहा है, आधुनिकता की होड़ में हम अपने त्योहारों, अपनी परंपराओं, अपने संस्कारों संस्कृति को लगातार भूलते चले जा रहे हैं। आज होली पर पहले की भांति बड़कूले नहीं बनते,बनाये भी जाते हैं तो एकाध घरों में। सबकुछ शॉर्टकट होने के कारण आज हमारी सामाजिक परंपराएं विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं। व्यस्तता के कारण आज घरों में बड़कूले(गाय के गोबर से) बनाये जाने का प्रचलन समाप्त प्रायः सा हो गया है, युवा पीढ़ी को तो बड़कूलों के बारे में जानकारी तक नहीं होगी,तो इसमें कोई विस्मय की बात नहीं है। गांवों में यह परंपरा अभी भी जीवित है। बड़कूलों को गूलरा, बरूला,बरूली के नाम से भी जाना जाता है। देखने में ये छोटे छोटे गोल आकार के जिनके बीच में रस्सी डालने के लिए एक छेद भी बना होता है, कंडे जैसे होते हैं। पहले प्रत्येक परिवार में होली के आने से महीनों महीनों भर पहले परिवार के प्रत्येक सदस्य के नाम से कम से कम सात सात या ग्यारह ग्यारह बड़कूले बनाये जाने की परंपरा थी, इन्हें खूब चाव से घर की बच्चियों, महिलाओं द्वारा बनाया जाता था, धूप में छत पर सुखाया जाता था और माला बनायी जाती थी ताकि होलिका दहन के समय इन्हें होली में जलाया जा सके। होली में पहले होला भूनने(कच्चे चने), गेहूँ की बालियाँ भूनने की परंपरा भी थी। होली में भूने गये चनों को “होला” कहा जाता था और होली के बाद महीनों महीनों तक इन होलों को परिवार के प्रत्येक सदस्य द्वारा अत्यंत चाव से खाया जाता था। कहते हैं कि होलिका दहन के समय उसकी आग में चावलों की फेरी लगाकर उन चावलों से लड्डू बनाकर खिलाये जाने से यह टायफाइड व विभिन्न रोगों के इलाज में रामबाण सिद्ध होता है लेकिन आजकल ये सब परंपरागत परंपराएं नदारद हैं। आजकल बड़कूले बनाने के लिए घरों में गौधन विरले ही मिलता है, होलिका दहन के समय गेहूं, चना सेंकने का समय अब बीत गया हुआ प्रतीत होता है।अब पहले की तरह फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी से गाय के गोबर से तलवार, चंद्रमा, सूरज,नारियल, होलिका माता,पान, आधी रोटी आदि आदि विरले ही गांव घरों में बनाए जाते हैं। आधुनिकता के साथ न तो घरों में आजकल पशुधन ही रहा है और न ही पहले जैसे होली का खुमार। बड़कूलों को बनाये जाने का कारण पर्यावरण संरक्षण था,क्योंकि गाय के गोबर को जलाने से निकलने वाला धुंआ जहाँ एक ओर हमारे पर्यावरण को शुद्ध करता है वहीं दूसरी ओर इससे छोटे छोटे कीटाणु और मक्खी-मच्छर भी मर जाते हैं और विभिन्न प्रकार की बीमारियों से हमारी सुरक्षा होती है। वास्तव में हमारी पूर्वजों, पुरखों द्वारा जो भी परंपराएं चलाई गई थीं उनके पीछे बहुत से वैज्ञानिक तथ्य और कारण थे। प्रत्येक प्रथा व परंपरा के पीछे वैज्ञानिकता थी,जिसे कोई भी महसूस कर सकता है। इतना ही नहीं, भारत के कुछ हिस्सों में होली के दिन आग में भुने हुए जौ के बीज खाने का रिवाज है। यह माना जाता है कि आग की लपटों की दिशा को देखकर आगामी फसल के मौसम की उपज का अनुमान लगाया जा सकता है कि “जमाना” कैसा होगा। दक्षिणी भारत में, कृषि उपज की पहली उपज जैसे फल, नारियल आदि को सबसे पहले पवित्र अग्नि को अर्पित किया जाता है। होलिका दहन के अगले दिन, लोग होलिका दहन की राख को अपने माथे पर लगाते हैं। अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए, आम के पेड़ की ताजी पत्तियों के साथ, चंदन-पेस्ट के साथ मिलाकर भी वे इसका सेवन करते हैं। मथुरा के पास नंदगाँव और बरसाना जैसी जगहें हैं, जहाँ भगवान कृष्ण और राधा रहते थे। दोनों जगहों पर होली से जुड़ी विशेष परंपरा है। लोकप्रिय रूप से बरसाने में लठमार होली खेली जाती है। राजस्थान के बीकानेर की होली,भरतपुर की होली काफी प्रसिद्ध है। बीकानेर व भीनमाल में गोटा गैर व डोलची होली खेली जाती है। गोटा गैर होली में पुरूष मंडली हाथों में डंडे लेकर नृत्य करते हैं।राजस्थान के अलग अलग हिस्सों में फूलों, कोड़ो, डंडों, पत्थरों से होली खेली जाती है। राजस्थान में ब्रज(भरतपुर क्षेत्र की) की लट्ठमार होली, आदिवासियों की पत्थरमार(बाड़मेर, जैसलमेर, डूंगरपुर) और कंकड़मार होली और हंसी ठिठौली वाली कोड़ामार होली अत्यंत प्रसिद्ध है। बताता चलूं कि जयपुर के आदिदेव गोविंद देवजी के मंदिर में होली का त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। यहां ब्रज की तर्ज पर फूलों की लाल और पीली पंखुड़ियों के साथ होली खेली जाती है।यहां संगीत और नृत्य का मनभावन संगम होता है। पंजाब से सटे श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ में कोड़ामार होली की परंपरा है. नए चलन में पुरानी परंपराएं स्मृतियों में कैद हो रही हैं. फिर भी कहीं-कहीं होली का यह आनंदमयी रूप नजर आता है. ढोल की थाप और डंके की चोट पर जहां हुरियारों की टोली रंग-गुलाल उड़ाती निकलती है. वही महिलाओं की मंडली किसी सूती वस्त्र को कोड़े की तरह लपेट कर रंग में भिगोकर इसे मारती हैं। यह होली एक तरह से अनूठी है क्योंकि बरसाना की महिलाएं नंदगावं के पुरुषों को लाठी या डंडे से मारती है क्योंकि वे श्री राधा मंदिर तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। पुरुष स्वंय को बचाने के लिए ढाल का प्रयोग हांलाकि इस दौरान कर सकते हैं। वैसे तो होली पर बहुत से पकवान व मिठाईयां बनाये जाने व परोसने का प्रचलन है लेकिन उत्तर भारत में बनी सबसे प्रसिद्ध मिठाइयाँ गुझिया और मालपुआ ही होती है, वहीं महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में पूरन पोली बनाई जाती हैं। होली के दिन ठंडाई (बादाम, दूध, चीनी, मसाले आदि के साथ एक ठंडा पेय) विशेष रुप से बनाया जाता है, क्योंकि यह वसंत का आगमन होता है जब मौसम सुहावना होता है। वैसे होली मौज-मस्ती, हंसी ठिठौली और प्रेम-सौहार्द से सराबोर करने वाला त्योहार है। यह त्योहार अपने भीतर परंपराओं के विभिन्न रंगों को समेटे हुए है, जो विभिन्न स्थानों में अलग-अलग रूपों में सजे-धजे नजर आते हैं। विभिन्नता में एकता वाले इस देश में अलग-अलग क्षेत्रों में इस त्योहार को मनाने का अलग-अलग अंदाज हैं। मगर इन विविधताओं के बावजूद हर परंपरा में एक समानता अवश्य है और वो है प्रेम और उत्साह, जो लोगों को आज भी सब कुछ भुलाकर हर्ष और उल्लास के रंग में रंग देते हैं। होली एक ऐसा त्योहार है जो सभी को एक साथ लाता है, चाहे वो किसी भी जाति, पंथ या धर्म सम्प्रदाय के हों। लेकिन आजकल होली पर केमिकल युक्त, कांच युक्त रंगों का प्रयोग किया जाता है, जिससे श्वसन संबंधी व चर्म रोग हो जाते हैं। हमें चाहिए कि हम होली पर प्राकृतिक रंगों टेसू ,गेंदे,गुलाब और पलाश के फूलों का भी उपयोग करें। रंगों का हमारे संपूर्ण जीवन व शरीर पर काफी प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अबीर छिद्रों के माध्यम से शरीर में प्रवेश करता है। यह शरीर में आयनों को मजबूत करने का प्रभाव है इसलिए यह लोगों के स्वास्थ्य को बढ़ाता है। होली के रंग होली की पंरपरा में और रंग भर देते हैं। बहरहाल, होली गाने-बजाने, रंग व हुड़दंगबाजी करने का त्योहार है, हमें अपनी सामाजिक पुरातन परंपराओं की ओर लौटना होगा और सादगी से इस त्योहार को मनाना है। अंत में, कुमार रवींद्र के शब्दों में बस यही कहूंगा –
“बदल गई घर-घाट की, देखो तो बू-बास।
बाँच रही हैं डालियाँ, रंगों का इतिहास।।”
सुनील कुमार महला,
स्वतंत्र लेखक व साहित्यकार
पटियाला, पंजाब
ई मेल-mahalasunil@yahoo.com