भक्तिकाल के समाज सुधारक परम संत गुरु रविदास भक्ति काल मे स्वामी रामानंदाचार्य वैष्णव भक्ति धारा के महान संत थे। संत कबीर, संत पीपा, संत धन्ना और संत रविदास उनके शिष्य थे। संत रविदास तो संत कबीर के समकालीन व गुरु भाई माने जाते हैं। संत रविदास ने ऐसे समाज की कल्पना क थी जहां किसी भी प्रकार का लोभ, लालच, दुख, दरिद्रता, भेदभाव नहीं हो। रविदास को पंजाब में रविदास कहा। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उन्हें रैदास के नाम से ही जाना जाता है। गुजरात और महाराष्ट्र के लोग ‘रोहिदास’ और बंगाल के लोग उन्हें ‘रुइदास’ कहते हैं। कहते हैं कि माघ मास की पूर्णिमा को जब रविदास जी ने जन्म लिया वह रविवार का दिन था जिसके कारण इनका नाम रविदास रखा गया। जूते बनाना रविदास जी का पारिवारिक व्यवसाय था | जिसे वे पूरी लगन तथा कर्तव्य निष्ठा से करते थे | संत रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना और मानव-प्रेम से ओत-प्रोत होती थी | उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके भक्त बन गये | कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्य बन गयी थीं | मुग़ल शासक बाबर भी रविदास जी का अनुयायी बन गया और उनसे प्रभावित होकर बाबर अच्छे सामाजिक कार्य भी करने लगा | रविदास जी मानते थे कि यदि आदमी का मन पवित्र है और वो अपना कार्य करते हुए, ईश्वर की भक्ति में तल्लीन रहता हैं तब उसके लिये प्रभु भक्ति से से बढ़कर कोई तीर्थ-स्नान नहीं है तो ऐसा इंसान सच्चा भक्त है | कोई भी व्यक्ति छोटा या बड़ा अपने जन्म के कारण नहीं बल्कि अपने कर्म के कारण होता है | मनुष्य के कर्म ही उसे ऊंचा या नीचा बनाते हैं | राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के अलग अलग नाम हैं | वास्तव के अंदर वेद उपनिषद बाईबिल गुरु ग्रन्थ साहिब कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में परमेश्वर का गुणगान किया गया है | आदमी को परमात्मा की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है | घमंड एवं अहंकार-शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में जरुर सफल रहता है जैसे विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकितिनके के समान छोटी सी चींटी इन कणों को सफलतापूर्वक आसानी से चुन लेती है | इसी प्रकार अहंकार त्याग कर, विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का सच्चा भक्त बन सकता है | कर्म हमारा धर्म है और फल हमारा सौभाग्य | इसलिए हमें हमेशा सात्विक कर्म करते रहना चाहिए | काम, क्रोध लोभ, अहंकार, मोह और ईर्ष्या मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं जो मनुष्य के चरित्र, आचरण दोनों को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं इसलिए सभी को इन दुशपरवर्तियों से हमेशा दूर ही रहना चाहिए | हमारा यह शरीर माटी का यह पुतला है जो नाचता-उड़ता फिरता रहता है. इसे अगर कुछ मिल जाता है, तो वह घमंडी हो जाता है और माया के खत्म होते ही रोने लगता है | रविदास जी मानना था कि शरीर तो भौतिक वस्तु है, उसे तो एक न एक दिन नष्ट हो ही जाना है | इसलिए हमें इस पर अभिमान न कर अपनी अंतरात्मा को शुद्ध और निर्मल रखना चाहिए |जिसके हृदय में रात-दिन राम समाये रहते हैं, ऐसा भक्त वास्तव के अंदर राम के समान ही है | उस पर न तो क्रोध का असर होता है और न ही काम-भावना उस पर कभी हावी हो सकती है | परमात्मा के समान बहुमूल्य हीरे को छोड़ कर अन्य की आशा करने वाले मनुष्य जरुर ही नरक में जाएंगे | जिस तरह केले के पेड़ के तने को छीला जाये तो पत्ते के नीचे पत्ता, फिर पत्ते के नीचे पत्ता और अंत में पूरा पेड़ खत्म हो जाता है लेकिन कुछ नहीं मिलता | उसी प्रकार इंसान ने अपने आपको भी जातियों छुट अछूत वर्गो में बांट दिया है | इन जातियों के विभाजन से इंसान अलग-अलग बंट जाता है जिसके फलस्वरूप अंत में इन्सान और इंसानियत भी खत्म हो जाती हैं लेकिन समाज को विभाजित करने वाली जाती खत्म नहीं होती है | परमात्मा के बिना मानव का भी कोई अस्तित्व नहीं है अज्ञानता के हटते ही मानव आत्मा-परमात्मा का मार्ग जान जाता है | तब परमात्मा और मनुष्य में कोई भेदभाव वाली बात नहीं होती | “भगवान ने इन्सान को बनाया है, न कि इंसान ने भगवान को।” हर इन्सान भगवान द्वारा बनाया गया है और सभी का धरती और प्रकृति पर समान अधिकार है | जिस समाज में विद्या और बुद्धि का अभाव है और जहां अज्ञानता है, ऐसा समाज कभी भी उन्नति नहीं कर सकता है इसलिए सभी मानवों को विद्या और ज्ञान को अर्जित करना चाहिए |रविदास जी ने आर्थिक विषमता, गरीबी, बेकारी और बदहाली से मुक्ति के लिए श्रम, स्वावलंबन का सिद्धांत दिया था | संत रविदास ने बाह्याडंबर, ढकोसला आदि का खंडन कर एक नई वैज्ञानिक विचारधारा का निर्धारण किया जिससे हिंदू, मुस्लिम संस्कृति के मध्य की विशाल खाई को पाटने में काफी सहायता मिली | निसंदेह रविदास जी की अमृतवाणी ने पूरे भारत में भावात्मक एकता स्थापित करने में अमूल्य योगदान दिया. करुणा, मैत्री, प्रज्ञा, चेतना एवं प्रखर वैचारिकता पर आधारित इस महान संत की वाणी सदैव देश के दीन-हीन, दलित-शोषितों के उद्धार के लिए मुखर रही | रविदास जी जीवन पर्यंत भेदभाव को समूल नष्ट करने के लिए प्रयासरत रहे | वे अपने समय से बहुत आगे थे | संत रविदास जी एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने भगवान की भक्ति में समर्पित होने के साथ अपने सामाजिक और पारिवारिक कर्तव्यों का भी बखूबी निर्वाह किया | .गुरु रविदास का मानना था कि समाज में सामाजिक स्वतंत्रता और सामाजिक समरसता का होना सबसे जरुरी है। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान, छोटा अथवा बड़ा नहीं होता है। गुरु रविदास ने वैश्विक बंधुता, सहिष्णुता, पड़ोसियों के लिये प्यार और देशप्रेम का पाठ पढ़ाया । एक आदमी गुरु रविदास जी के पास एक पत्थर ले कर आये और कि यह बोले यह पत्थर किसी भी लोहे को सोने में बदल सकता सकता है। जब उस आदमी ने पत्थर को सुरक्षित जगह रखने के लिये गुरुजी पर दबाव डाला और कहा कि मैं इसे लौटते वक्त वापस ले लूँगा तब रविदास ने उसे अपने घर के छप्पर पर फेकं दिया | वो आदमी कई वर्षों बाद लौटा तो उसने देखा कि वो पत्थर उसी तरह छप्पर पर पड़ा हुआ है | गुरु रविदास ने हमेशा अपने अनुयायीयों को सिखाया कि कभी धन के लिये लालची मत बनो, धन कभी स्थायी नहीं होता, इसके बजाय आजीविका के लिये कड़ी मेहनत करो। |सच्चाई यही है कि संत रविदास जी के 40-41 पद गुरु ग्रन्थ साहब में मिलते हैं जिसका सम्पादन गुरु अर्जुन सिंह देव ने 16 वीं सदी में किया था | दादूपंथी की पञ्च वाणी परंपरा में भी गुरु रविदास जी की बहुत सी कविताये, दोहे और सूक्तियां शामिल है। राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में मीरा के मंदिर के आमने एक छोटी छत्री है जिसमे मान्यताओं के मुताबिक रविदासजी के पदचिन्ह स्थापित है। रैदास नाम से प्रसिद्ध संत रविदास का जन्म सन् 1388 (इनका जन्म कुछ विद्वान 1398 में हुआ भी बताते हैं) को बनारस के सीर गोवर्धन में हुआ था में हुआ था। उनके जन्म स्थल पर एक भव्य मंदिर निर्मित किया गया है और उनकी जयंती के मौके पर यहां तीन दिन तक उत्सव मनाया जाता है। वाराणसी में श्री गुरु रविदास पार्क है जो नगवा में उनके यादगार के रुप में बनाया गया है जो उनके नाम पर “गुरु रविदास स्मारक और पार्क” बना है | वाराणसी में पार्क से बिल्कुल सटा हुआ उनके नाम पर गंगा नदी के किनारे लागू करने के लिये गुरु रविदास घाट भी भारतीय सरकार द्वारा प्रस्तावित है | वाराणसी के लंका चौराहे पर एक बड़ा गेट है जो इनके सम्मान में बनाया गया है। ज्ञानपुर जिले के निकट संत रविदास नगर है जो कि पहले भदोही नाम से था अब उसका नाम भी संत रविदास नगर है। अपने बचपन से ही रविदास जी परोपकारी और दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-संतों की सहायता करने में उनको विशेष आनंद मिलता था। रविदास साधु संतों को अपने हाथ से बने जूते मुफ्त में ही दे दिया करते थे | रविदास के अनोखे व्यवहार से व्यथित और खिन्न होकर उनके पिता ने उन्हें और उनके परिवार को घर से निकाल दिया था |एक दिन एक ब्राह्मण संत जी ने मिलने आया और कहने लगा में गंगा स्नान के लिए जा रहा हूँ तब रविदास जी ने कहा कि आप गंगा स्नान करने जा रहे हैं, यह एक मुद्रा है, इसे मेरी तरफ से गंगा मैया को दे देना। ब्राह्मण जब गंगाजी पहुंचा और स्नान करके जैसे रुपया गंगा में डालने को उद्यत हुआ तो गंगा नदी में से गंगा माता ने जल में से अपना हाथ निकालकर वह रुपया ब्राह्मण से ले लिया तथा उसके बदले ब्राह्मण को एक सोने का कंगन दे दिया।ब्राह्मण जब गंगा मैया का दिया कंगन लेकर लौट रहा था तो वह नगर के राजा से मिलने चला गया। ब्राह्मण को विचार आया कि यदि यह कंगन राजा को दे दिया जाए तो राजा बहुत प्रसन्न होगा। उसने वह कंगन राजा भेंट कर दिया। राजा ने बहुत-सी मुद्राएं देकर उसकी झोली भर दी। ब्राह्मण अपने घर चला गया। इधर राजा ने वह कंगन अपनी महारानी के हाथ में बहुत प्रेम से पहनाया तो महारानी बहुत खुश हुई और राजा से बोली कि कंगन तो बहुत सुंदर है, परंतु यह क्या एक ही कंगन, क्या आप बिल्कुल ऐसा ही एक और कंगन नहीं मंगा सकते हैं।राजा ने कहा- प्रिये ऐसा ही एक और कंगन मैं तुम्हें शीघ्र मंगवा दूंगा। राजा से उसी ब्राह्मण को खबर भिजवाई कि जैसा कंगन मुझे भेंट किया था वैसा ही एक और कंगन मुझे तीन दिन में लाकर दो वरना राजा के दंड का पात्र बनना पड़ेगा। खबर सुनते ही ब्राह्मण के होश उड़ गए। वह पछताने लगा कि मैं व्यर्थ ही राजा के पास गया, दूसरा कंगन कहां से लाऊं? अपनी उलझन बताई पूरा वृत्तांत बताया कि गंगाजी ने आपकी दी हुई मुद्रा स्वीकार करके मुझे एक सोने का कंगन दिया था, वह मैंने राजा को भेंट कर दिया। अब राजा ने मुझसे वैसा ही कंगन मांगा है, यदि मैंने तीन दिन में दूसरा कंगन नहीं दिया तो राजा मुझे कठोर दंड देगा रविदास जी बोले कि तुमने मुझे बताए बगैर राजा को कंगन भेंट कर दिया। इसका पछतावा मत करो। यदि कंगन तुम भी रख लेते तो मैं नाराज नहीं होता, न ही मैं अब तुमसे नाराज हूं। रही दूसरे कंगन की बात तो मैं गंगा मैया से प्रार्थना करता हूं कि इस ब्राह्मण का मान-सम्मान तुम्हारे हाथ है। इसकी लाज रख देना। ऐसा कहने के उपरांत रविदास जी ने अपनी वह कठौती उठाई जिसमें वे जुटे बनाने के चमड़े को भिगोते थे उसमे पानी भरा हुआ था । संत जी ने गंगा मैया का आह्वान कर अपनी कठौती से जल छिड़का तब गंरागा मैया प्रकट हुई और रैदास जी आराधना पर उन्होंने एक और कड़ा ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण खुश होकर राजा को वह कंगन भेंट करने चला गया और रैदासजी ने अपने बड़प्पन का जरा भी अहसास ब्राह्मण को नहीं होने दिया। ऐसे थे महान संत रविदास। एक अन्य प्रसंग के अनुसार एक बार एक पर्व के अवसर पर उनके पड़ोस के लोग गंगा जी में स्नान के लिए जा रहे थे। रविदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी गंगा स्नान के लिए चलने का आग्रह किया। उन्होंने उत्तर दिया- गंगा स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किंतु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का वचन मैंने दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो मेरा वचन भंग होगा। ऐसे में गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहां लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? मन जो काम करने के लिए अंत:करण से तैयार हो, वही काम करना उचित है। अगर मन नहीं है तो इसे कठौते के जल में ही गंगा स्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। माना जाता है कि इस प्रकार के उनके व्यवहार के बाद से ही यह कहावत प्रचलित हो गई कि- ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’एक बार रविदास जी अपने भक्तों और अनुयायियों को उपदेश दे रहेथे तब नगर का एक धनी सेठ भी वहाँ उनके उपदेश को सुनने आ गया । गुरु जी ने सभी को प्रसाद के रुप में अपने मिट्टी के बर्तन से पवित्र पानी दिया। लोगों ने उसे ग्रहण किया और पीना शुरु किया हालांकि धनी सेठ ने उस पानी को गंदा समझ कर अपने पीछे फेंक दिया जो बराबर रूप से उसके पैरों और जमीन पर गिर गया।वो अपने घर गया और उस कपड़े को कुष्ठ रोग से पीड़ित एक गरीब आदमी को दे दिया। उसकपड़े को पहनते ही उस आदमी के पूरे शरीर को आराम महसूस होने लगा एवं शीघ्र हीकुष्ठ रोगी ठीक हो गया। कुछ समय बाद धनी सेठ को कुष्ठ रोग हो गया जो कि महँगे उपचार और अनुभवी और योग्य वैद्य द्वारा भी ठीक नहीं हो सका।अंत मे वो गुरु जी के पासमाफी माँगने के लिए गया और जख्मों को ठीक करने के लिये गुरु जी से वो पवित्र जल प्राप्त किया जिससे वो कुष्ठ रोग से मुक्त हो गया । अनेकों लोग मानते हैं कि गुरु रविदास को अद्भुत सिद्धियां प्राप्त थीं। कुछ मान्यताओं के मुताबिक बचपन में एक बार उनके एक प्रिय मित्र की मृत्यु हो गई थी। सब लोग इसका शोक मना रहे थे। लेकिन जैसे ही रामदास ने करुण हृदय से दोस्त को पुकारा तो वह जीवित होकर उठ बैठा।रविदास की पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने पड़ोसियों से अनुरोध किया की कि वो गंगा नदी के किनारे उनके पिता का अंतिम संस्कार करने मे उनकी मदद करें, वे बोले कि अंतिम संस्कार करने के बाद वो गंगा में स्नान करेगें | ब्राह्मण समुदाय ने इसका विरोध किया और बोले उनके स्नान करने से नदी का जल प्रदूषित हो जायेगा। रविदास जी दुखी हो गये और बिना स्नान किये अपने पिता की आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना करने लगे। अचानक से वातावरण में एक भयानक तूफान आया और नदी का पानी उल्टी दिशा में होना प्रारंभ हो गया और जल की एक गहरी तरंग आयी और लाश को अपने साथ ले गयी। इस बवंडर ने आसपास की सभी चीजों को सोख लिया। तब से, गंगा का पानी उल्टी दिशा में बह रहा है |रविदास जी ने अपने एक ब्राह्मण मित्र की रक्षा एक भूखे शेर से की थी जिसके बाद दोनों मित्र बन गये। शहर के दूसरे ब्राह्मण इस दोस्ती से जलते थे सो उन्होंने इस बात की शिकायत राजा से कर दी। रविदास जी के उस ब्राह्मण मित्र को राजा ने अपने दरबार में बुलाया और भूखे शेर द्वारा मार डालने का हुक्म दिया। शेर जल्दी से उस ब्राह्मण लड़के को मारने के लिये लाया गया लेकिन गुरु रविदास को उस लड़के को बचाने के लिये खड़े देख शेर शांत हो गया और वापिस लोट गया | रविदास जी के चमत्कार से राजा और शिकायत करने वाला ब्राह्मण एवँ सभी दरबार में उपस्थित लोग बेहद शर्मिंदा हुए और वो सभी गुरु रविदास के अनुयायी बन गयेभी। अस्पृश्य होने के बावजूद भी जनेऊ पहनने के कारण ब्राह्मणों की शिकायत पर उन्हें राजा के दरबार में बुलाया गया। वहाँ उपस्थित होकर उन्होंने कहा कि अस्पृश्यों को भी समाज में बराबरी का अधिकार मिलना चाहिये क्योंकि उनके शरीर में भी दूसरों की तरह खून का रंग लाल होता और उनके अंदर पवित्र आत्मा होती है | संत रविदास ने तुरंत अपनी छाती पर एक गहरी चोट की और उस पर चार युग जैसे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलयुग की तरह सोना, चाँदी, ताँबा और सूती के चार जनेऊ खींच दिया। राजा समेत सभी लोग अचंभित रह गये और गुरु जी के सम्मान में सभी उनके चरणों को छूने लगे। राजा को अपने बचपन जैसे व्यवहार पर बहुत शर्मिंदगी महसूस हुयी और उन्होंने इसके लिये माफी माँगी।एक बार रविदास जी अपने भक्तों और अनुयायियों को उपदेश दे रहे थे तब नगर का एक धनी सेठ भी वहाँ उनके उपदेश को सुनने आ गया । गुरु जी ने सभी को प्रसाद के रुप में अपने मिट्टी के बर्तन से पवित्र पानीदिया। लोगों ने उसे ग्रहण किया और पीना शुरु किया हालांकि धनी सेठ ने उस पानी कोगंदा समझ कर अपने पीछे फेंक दिया जो बराबर रूप से उसके पैरों और जमीन पर गिर गया।वो अपने घर गया और उस कपड़े को कुष्ठ रोग से पीड़ित एक गरीब आदमी को दे दिया। उस कपड़े को पहनते ही उस आदमी के पूरे शरीर को आराम महसूस होने लगा एवं शीघ्र ही कुष्ठ रोगी ठीक हो गया। कुछ समय बाद धनी सेठ को कुष्ठ रोग हो गया जो कि महँगे उपचार और अनुभवी और योग्य वैद्य द्वारा भी ठीक नहीं हो सका।अंत मे वो गुरु जी के पासमाफी मांगने के लिए गया और जख्मों को ठीक करने के लिये गुरु जी से वो पवित्र जल प्राप्त किया जिससे वो कुष्ठ रोग से मुक्त हो गया । अनेकों लोग मानते हैं कि गुरु रविदास को अद्भुत सिद्धियां प्राप्त थीं। कुछ मान्यताओं के मुताबिक बचपन में एकबार उनके एक प्रिय मित्र की मृत्यु हो गई थी। सब लोग इसका शोक मना रहे थे। लेकिन जैसे ही रामदास ने करुण हृदय से दोस्त को पुकारा तो वह जीवित होकर उठ बैठा।रविदास जी ने अपने एक ब्राह्मण मित्र की रक्षा एक भूखे शेर से की थी जिसके बाद दोनों मित्र बन गये। शहर के दूसरे ब्राह्मण इस दोस्ती से जलते थे सो उन्होंने इस बात की शिकायत राजा से कर दी। रविदास जी के उस ब्राह्मण मित्र को राजा ने अपने दरबार में बुलाया और भूखे शेर द्वारा मार डालने का हुक्म दिया। शेर जल्दी से उस ब्राह्मण लड़के को मारने के लिये लाया गया लेकिन गुरु रविदास को उस लड़के को बचाने के लिये खड़े देख शेर शांत हो गया और वापिस लोट गया | रविदास जी के चमत्कार से राजा और शिकायत करने वाला ब्राह्मण एवँ सभी दरबार में उपस्थित लोग बेहद शर्मिंदा हुए और वो सभी गुरु रविदास के अनुयायी बन गये। अस्पृश्य होने के बावजूद भी जनेऊ पहनने के कारण ब्राह्मणों की शिकायत पर उन्हें राजा के दरबार में बुलाया गया। वहाँ उपस्थित होकर उन्होंने कहा कि अस्पृश्यों को भी समाज में बराबरी का अधिकार मिलना चाहिये क्योंकि उनके शरीर में भी दूसरों की तरह खून का रंग लाल होता और उनके अंदर भी पवित्र आत्मा होती है | संत रविदास ने तुरंत अपनी छाती पर एक गहरी चोट की और उस पर चार युग जैसे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलयुग की तरह सोना, चाँदी, ताँबा और सूती के चार जनेऊ खींच दिया। राजा समेत सभी लोग अचंभित रह गये और गुरु जी के सम्मान में सभी उनके चरणों को छूने लगे। राजा को अपने बचपने जैसे व्यवहार पर बहुत शर्मिंदगी महसूस हुयी और उन्होंने इसके लिये माफी माँगी।आज के असहिष्णुता, पारस्परिक अविश्वास, धार्मिक उन्माद और वैमनस्यता के विषाक्त वातावरण में रविदास जी की शिक्षाएं हमें सही रास्ता दिखा सकती है जिससे हम देश के अंदर धार्मिक सद्दभाव सौहार्द आपसी भाईचारे और जाति पाती विहीन सभ्य समाज का निर्माण कर सकते हैं |हिंदू पंचांग के अनुसार माघ माह की पूर्णिमा के दिन गुरु रविदास जयंती मनाई जाती है। 5 फरवरी 2023 को रविदास जी की 646 वीं जयंती मनाई जा रही है। संत रविदास के जन्म को 646 वर्ष बीत जाने के बाद भी उनके उपदेश, दोहे आज भी मानव मात्र के कल्याण के लिये जरूरी है | समूचा राष्ट्र संत रविदास जी को 5 फरवरी 2023 को उनके 646 वें जन्म दिन पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता है |
डा. जे. के. गर्गपूर्व संयुक्त निदेशक कालेज शिक्षा जयपुर