प्रातकाल: हम सभी अपनी अपनी भावनाओं के अनरूप ईष्ट को स्मरण करते है वह अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए ईष्ट के समक्ष समर्पित होते है। सामाजिक स्तर को बनाए रखने व परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अर्थ महत्व रखता है और हम सभी की मनोकामना में एक अभिप्राय अर्थ से संबंधित भी होता है। व्यापार व पेशे में आ रही अर्थ परेशानियों को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम हमारे ईष्ट के प्रति प्रार्थना का हिस्सा होता है। अपने ईष्ट के समक्ष अपनी पीड़ा को व्यक्त किया जाना चाहिए लेकिन यहा मेरा एक अतिरिक्त निवेदन महत्व का हो सकता है। प्रार्थना में अर्थ संपन्नता मांगने के स्थान पर यदि हम ईष्ट के प्रति पूर्ण समर्पित होकर यह निवेदन करे कि
।। जो है जो छुड़ाना मत और ज्यादा मत देना।।
का भाव ज्यादा प्रभावकारी हो सकता है। जो है छुड़ाना मत का अभिप्राय ईष्ट से यह निवेदन करना व उनके प्रति कृतज्ञता देना है कि आपने जो भी मुझे अब तक दिया है पूर्ण दिया है लेकिन भविष्य में वर्तमान में जो मुझे मिल रहा है उसे मुझसे अलग मत करना चाहे वह अर्थ हो, परिवार हो, परिजन हो। भाव दिखने में सूक्ष्म सा प्रतीत होता है लेकिन इसके माध्यम से हमारी प्रार्थना यह है कि मुझे किसी भी अवस्था में कर्ज का अतिरिक्त भार मत देना, माता पिता का सानिध्य मिलता रहे, समाज सेवा का जो कार्य कर रहा हूं वह सदैव करता रहा हूं। यहां अतिरिक्त मत देने का भाव मात्र इतना सा है कि जितना मेरे उपयोग व जरूरत है उतना देना क्योंकि अतिरिक्त मिलने पर अंह का साथ आना स्वाभाविक है, साथ ही जिदंगी में अनेक बुरी आदतो का प्रवेश होने लगेगा। मैं जहां हूं, जैसा भी हूं, जितना भी है, उसमे पहले संतुष्ट होने का प्रयास करूंगा। जैसे ही हमारा अतिरेक से मोह हटता है जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश होता है जो स्वयं में, व्यपार में, पेशे में उपलब्ध्यिां प्रदान कर सकता है। तात्पर्य यह है कि ईष्ट के समक्ष भौतिक संसाधनो के लिए किया गया निवेदन सशक्त इसलिए नहीं बन पाता क्योंकि हमारे अर्थ प्राप्ति में हमारे प्रयास ज्यादा महत्व रखते है, ईष्ट तो हमें उन्हें प्राप्त करने की शक्ति प्रदान करता है। मांगने के स्थान पर कृतज्ञता का भाव जैसे ही प्रार्थना का अंग बन जाएगा सारे मनारेथ स्वत: ही पूर्ण होने लगेगे।
DINESH K.GARG ( POSITIVITY ENVOYER)
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