सपा-बसपा के आमने-सामने आने से भाजपा झूमी
संजय सक्सेना,लखनऊ / अगले वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश की सियासत काफी तेजी से ‘रंग’ बदल रही है। कुछ पुराने मुद्दों और विवादित बयानों को नई ‘धार’ दी जा रही है तो आरक्षण, जातिगत जनगणना, रामचरित मानस विवाद वोट बटोरने के नये ‘टूल किट’ बन गए हैं। इसी तरह से आम चुनाव से पूर्व अयोध्या में प्रभु रामलला का भव्य मंदिर भीबन कर तैयार हो जाएगा।वहीं मथुरा में शाही ईदगाह और काशी में ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर जो मामला कोर्ट में चल रहा है उस पर भी चुनाव से पूर्व कुछ महत्वपूर्ण फैसला आने की संभावना व्यक्त की जा रही है।बीजेपी को उम्मीद है कि अयोध्या-मथुरा और काशी के सहारे वह हिन्दू वोटरों को अपने पाले में खींच सकती है।दलितों-पिछड़ों को तो हमेशा से ही तमाम राजनैतिक दलों के नेता अपने पाले में लाने की कोशिश करते ही रहते थे। इस बार मुसलमानों में पसमंदा मुसलमानों की सियासत भी देखने को मिल रही है। भारतीय जनता पार्टी पसमंदा वोटरों को अपने पाले में करने के लिए तमाम टोटके अपना रही है।अभी तक पसमंदा मुसलमान सपा-बसपा के वोटर रहे हैं। पसमंदा वह मुसलमान हैं जो कभी दलित या पिछड़े हिन्दू हुआ करते थे। बाद में यह धर्म परिर्वतन करके मुसलमान बन गए थे, परंतु यहां भी उनके साथ नाइंसाफी हुई जिस कारण पसमंदा मुलसमान आज भी मुस्लिम समाज में अछूत जैसे माने जाते हैं। भाजपा इसी बात को भुनाने में लगी है। वहीं बसपा और समाजवादी पार्टी के बीच मुसलमानों को अपने पाले में खींचने की अलग मुहिम छिड़ी हुई है।जब से बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमों मायावती ने किसी भी राजनैतिक दल के साथ आम चुनाव के लिए गठबंधन किए जाने से इंकार किया है,तब से सपा-बसपा के बीच द्वंद और भी गहराता जा रहा है।
बाद के एकला चलो ने यानी 2014 के चुनाव में बसपा का वोट बैंक सिकुड़ा और पार्टी राज्य की सत्ता वर्ष 2012 में गंवाने के बाद लोकसभा से साफ हो गई। मायावती ने इस चुनाव में पूरा जोर लगाया। लेकिन, भाजपा के ब्रांड मोदी के आगे न मायावती टिकीं और न ही सत्ताधारी समाजवादी पार्टी। इस चुनाव में भाजपा गठबंधन यानी एनडीए ने 73 सीटों पर जीत दर्ज की। 5 सीटें सपा और 2 सीटें बसपा के पाले में गई। पार्टी चुनाव में 19.60 फीसदी वोट ही मिले। 22 से 25 फीसदी वोट बैंक की राजनीति करने वाली मायावती का आधार वोट खिसका। इसके बाद से बसपा संभल नहीं पाई है।
स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं ने भाजपा का दामन थामा तो ओबीसी वोट बैंक मजबूती के साथ भाजपा से जुड़ गया। भाजपा में गए तो दलित और अति पिछड़े वर्ग के वोटरों को एक नया ठिकाना दिखा। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में इसका असर दिखा। बसपा को 22.24 फीसदी वोट तो मिले, लेकिन पार्टी सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई। इसके बाद एक बार फिर 26 साल बाद सपा और बसपा का गठबंधन हुआ। यूपी की राजनीति में कल्याण सिंह और राम मंदिर मुद्दे की हवा निकालने वाली मुलायम सिंह यादव और काशीराम की जोड़ी की दोनों पार्टियां एक घुरी पर आईं।
2019 के चुनाव में इसका असर दिखा। 2014 के लोकसभा चुनाव में 71 सीट जीतने वाली भाजपा 62 सीटों पर आई। एनडीए ने कुल 64 सीटें जीतीं। यानी, 5 साल में 9 सीटों का नुकसान। फायदे में मायावती की बसपा रही। पार्टी ने सपा से गठबंधन का फायदा उठाते हुए 10 सीटों पर जीत दर्ज की। वहीं, सपा 5 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई। कांग्रेस घटकर एक सीट पर पहुंच गई। वर्ष 2019 के चुनाव में बसपा का वोट शेयर सपा से गठबंधन के बाद भी 19.3 फीसदी रहा। सपा 18 फीसदी वोट शेयर के साथ तीसरे स्थान पर रही। कांग्रेस 6.31 फीसदी वोट शेयर ही हासिल कर पाई। भाजपा ने 49.6 फीसदी वोट शेयर के साथ प्रदेश की राजनीति पर अपना दबदबा दिखाया।
यूपी चुनाव 2022 भी कांग्रेस और बसपा के लिए मुश्किलों भरा रहा है। उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बनाने वाली बसपा केवल 12.88 फीसदी वोट ही हासिल कर पाई। पार्टी को केवल एक सीट पर जीत मिली। विधानसभा में विलुप्त होने से तो पार्टी बच गई, लेकिन आधार वोट ही खो दिया। भाजपा ने एक बार फिर सभी दलों को पछाड़ा। पार्टी ने 41.76 फीसदी वोट शेयर हासिल किया। वहीं, सपा 32.02 फीसदी वोट शेयर के साथ दूसरे स्थान पर रही। वहीं, कांग्रेस 2.4 फीसदी वोट शेयर हासिल कर पाई। कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में 2 सीटों पर जीत मिली।
बहुजन समाज पार्टी लोकसभा चुनाव 2024 में पांच साल पहले के रिजल्ट को सुधारने की कोशिश करती दिख रही है। इसके लिए मायावती लगातार जिला स्तर के कार्यकर्ताओं के साथ बैठक कर रही हैं। एक बार फिर दलित, ओबीसी, मुस्लिम समीकरण को साधने की कोशिश है। बसपा का मास्टरप्लान रेडी है। मायावती की हरी झंडी मिल चुकी है। इमरान मसूद जैसे पश्चिमी यूपी के कद्दावर नेताओं को पार्टी ने जोड़कर अपनी रणनीति साफ कर दी है। हालांकि, मायावती को एक ऐसे साथी की जरूरत है, जो वोट बैंक को उनकी तरफ ट्रांसफर कराए। कांग्रेस यूपी में ब्राह्मण, ओबीसी और मुस्लिम वोट बैंक पर अपनी पकड़ रखती थी। इनके सहारे सत्ता की सीढ़ी चढ़ने की कोशिश करती थी। मायावती ने बहुजन वोट बैंक पर फोकस किया है। ऐसे में वह कांग्रेस के सहारे सवर्ण वोट बैंक को साधने की कोशिश कर सकती है। इन वोटों को गठबंधन के सहारे एक-दूसरे को ट्रांसफर कराने का प्रयास होगा।
बसपा सांसद की राहुल गांधी की यात्रा में शामिल होने के बाद जिस प्रकार के कयास लग रहे हैं, उससे साफ है कि यूपी की राजनीति में दोनों राजनीतिक अकेले प्रभाव खो रहे हैं। विपक्ष की राजनीति का चेहरा अभी समाजवादी पार्टी बन गई है। उस मोमेंटम को यूपी निकाय चुनाव से बदलने की कोशिश है। अगर इस प्रकार की चर्चाओं का निकाय चुनाव के परिणाम पर असर दिखता है, तो निश्चित तौर पर सपा इसे अगले लोकसभा चुनाव के मैदान में आजमा सकती है।