शास्त्रों में जप तीन प्रकार का माना गया है-मानस, उपांशु और वाचिक। वाचिक सरल, उपांशु कुछ कठिन और मानस कड़ी साधना के बाद संभव हो पाता है। मन ही मन मंत्र का अर्थ मनन करके उसे धीरे-धीरे इस प्रकार उच्चारण करना कि जिह्वा और ओंठ में गति न ही, मानस जप कहलाता है। जिह्वा और ओठ को हिला कर मंत्रों के अर्थ का विचार करते हुए इस प्रकार उच्चारण करना कि कुछ न सुनाई पड़े, उपांशु जप कहलाता है। विद्वान उपांशु व मानस जप के मध्य जिह्वा जप नाम का एक चौथा जप भी मानते हैं। यूं तो जिह्वा जप भी उपांशु के ही अंतर्गत है, अंतर केवल इतना ही है कि जिह्वा जप में जिह्वा हिलती है, पर ओठ में गति नहीं होती और न उच्चारण ही सुनाई पड़ता है। वर्णों का स्पष्ट उच्चारण करना वाचिक जप कहलाता है। कहा जाता है कि वाचिक जप से दस गुना फल उपांशु में, शत गुना फल जिह्वा जप में और सहस्त्र गुना फल मानस जप में होता है।
मनु महाराज कहते हैं कि उपांशु जप से मन मूर्छित होने लगता है। एकाग्रता आरंभ होती है। वृत्तियां अंतर्मुखी होने लगती हैं। इसके द्वारा साधक स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। मंत्र का प्रत्येक उच्चारण मस्तक पर कुछ असर करता सा मालूम होता है।
उपांशु जप के बारे में मेरा जो अनुभव है, वह मुझे एक आलेख में झलकता है। उसमें लिखा था कि जब भी हमें हिचकी आती है तो हम स्वयं व पास बैठा व्यक्ति यही कहता है कि जरूर कोई याद कर रहा है। दिलचस्प बात ये है कि जब हम विचार करते हैं कि कौन याद कर रहा होगा और उनके नामों का जिक्र करते हैं तो जिसका नाम लेने पर हिचकी बंद होती है तो यही सोचते हैं कि उसी ने याद किया था। सवाल ये है कि यदि कोई हमें शिद्दत से याद करता है तो हिचकी आती है? मेरा ऐसा ख्याल है कि शारीरिक क्रिया तो अपनी जगह है ही, मगर इससे भी इतर कुछ तो है। मेरा विचार है कि हमारा मस्तिष्क तो सुपर कंप्यूटर है ही, जो कि पूरे शरीर को संचालित करता है, वहीं पर विचार चलते रहते हैं, मगर अमूमन विचार करने की ऊर्जा कंठ पर केन्द्रित रहती है। जरा महसूस करके देखिए। विज्ञान कहता है कि विचार की कोई भाषा नहीं होती। सही भी है। यह एक मौलिक तथ्य है। इसलिए कि जहां विचार हो रहा है, वहां केवल भाषायी वाक्य ही विचरण नहीं करते, ध्वनि, स्वाद, गंध, दृश्य आदि की अनुभूतियां भी मौजूद रहती हैं। हां, भाषायी वाक्य जरूर उस भाषा में होते हैं, जो कि आमतौर पर हम उपयोग में लेते हैं। आपने अनुभव किया होगा कि कई बार कोई बात कहने से पहले मन ही मन जब रिहर्सल होती है तो उसकी हलचल कंठ पर ही होती है। मैने ऐसे उदाहरण भी देखे हैं कि कोई व्यक्ति जो वाक्य बोलता है तो ठीक तुरंत बाद कंठ पर हुई हलचल बुदबुदाने के रूप में सामने आती है। चूंकि शब्दों का संबंध सीधे कंठ से है, इस कारण भाषा विशेष में विचार करते समय कंठ पर ऊर्जा केन्द्रित होती है। जरा गहरे में जा कर देखिए, सोचते समय भले ही वाणी मौन होती है, मगर कंठ व जीभ पर वाक्य हलचल कर रहे होते हैं। इस यूं समझिये। जैसे हम मन ही मन राम नाम का उच्चारण करते हैं तो बाकायदा जीभ पर वैसी ही क्रिया होती रहती है, जैसी राम नाम का उच्चारण करते वक्त होती है। अर्थात विचार करने के दौरान मस्तिष्क तो आवश्यक रूप से काम कर ही रहा होता है, मगर हमारी ऊर्जा, जिसे प्राण भी कह सकते हैं, कंठ पर भी सक्रिय होती है। इस ऊर्जा के कारण मस्तिष्क की तरह कंठ भी ट्रांसमीटर की तरह काम करता है। वह भी बाह्य जगत की तरंगों को ग्रहण करता है। संप्रेषण भी कर सकता है। जैसे ही हमें कोई याद करता है तो उसकी तरंगों का हमारे कंठ पर असर पड़ता है, वहां खिंचाव होता है और हिचकी आने लगती है। जैसे ही हम याद करने वाले का नाम लेते हैं तो वर्तुल पूरा हो जाता है और हिचकी आना बंद हो जाती है। ऐसा मेरा नजरिया है। हालांकि मुझे इस बात का अहसास है कि मेरी जो भी अनुभूति है, उसे ठीक से शब्दों में अभिव्यक्त नहीं पाया हूं, मगर मेरी अभिव्यक्ति उसके इर्द-गिर्द जरूर है।
उपांशु जप भी मूलतः कंठ पर स्थित होता है। चूंकि कंठ ऊर्जा का केन्द्र है, इस कारण इस जप के परिणाम बड़े प्रभावकारी होते हैं। मैने स्वयं उसका अनुभव किया है। वह परिणाम मूलक भी होता है। जिस भी देवी-देवता अथवा इष्ट देवता के नाम पर यह किया जाता है, वहां से प्रतिक्रिया के रूप में ऊर्जा का संचार हमारी ओर होता है। आप भी इसका अनुभव कर सकते हैं।