प्राय:हम सभी अपनी स्वयं की परेशानियों से उतने व्यथित नहीं होते जितने दूसरो के द्वारा हमें परोसी गई बातो व उनके उपेक्षित व्यवहार के चलते व्यथित होते है। धीरे धीरे यह व्यथा निराशा में बदलकर स्वास्थ्य को भी प्रभावित करने लगती है। हम पढ़ते और समझते भी है कि दूसरो के द्वारा कहीं गई बातो को अपने मनोमस्तिष्क में स्थान नहीं देना चाहिए लेकिन मानव स्वभाव के चलते बार बार ऐसी पुनरावृति होती रहती है और उन्हें विस्मृत करना मुश्किल हो जाता है। परिवार और रिश्तो के अलावा व्यापार व पेशे के दौरान भी ऐसी बातो का होना आम है तो इतना धैर्य कहां से लाए प्रश्न चिंतन का है? इसके लिए हमें कान से सुनी उन बातो को जो केवल हमे उकसाने के उददेश्य से हमे कहीं जा रही है उन्हें दिमाग से पहचने के रास्तो को रोक देना है फिर भी यदि चिंतन दिमाग तक पहुॅंच भी जाएं तो हमें उसे अपने दिल तक पहुचंने के रास्तो पर रोक लगानी ही होगी। कहते है कि जाने भी दो यारो को जीवन में अपनाने के प्रयास बढ़ाने होगे। एक गलती हम सभी करते है कि हो चुकी बातो पर भी दिलचस्पी दिखाते हुए अपनी प्रतिक्रिया तुरंत दे देते है और यही सामने वाला चाहता है कि हम वह गलती करे इसलिए उस समय को थोड़ी देर के लिए व्यतीत होने दे। एक बात और महत्व है कि जो बात हमें कहीं जा रही है उसका सीधा संबंध हमारे से है या दूसरे से है यह समझना होगा। दूसरो के लिए की जाने वाली बाते केवल समय के दुरूपयोग के अतिरिक्त कुछ नहीं होती हां यदि अपने संंदर्भ की उपयोगी प्रतीत होती है तो उन्हें सहजता से सुनकर स्वयं में अपेक्षित सुधार की आवश्यकता है तो उसे अपनाने में कोई हर्ज नहीं है। वर्तमान में सच्चाई भी यही है कि वायु प्रदूषण से ज्यादा घातक कर्ण प्रदूषण का स्तर हमे तो प्रभावित ही कर रहा है साथ ही रिश्तो में भी जहर धोल रहा है। जो जैसे चाहे, जिसे चाहे, जिस समय चाहे चर्चा करने में ही व्यस्त प्रतीत होता है यह समाज की विडंबना ही तो है।
DINESH K.GARG ( POSITIVITY ENVOYER) AJMER
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