भारत समूची दुनिया में एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा हैं, महाशक्तिशाली राष्ट्र भी भारत की ओर आशाभरी निगाहों से देख रहे हैं। हिरोशिमा में जी-7 सम्मेलन के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी मानवतावादी सोच एवं युद्ध-हिंसामुक्त नयी दुनिया को निर्मित करने के संकल्प के लिये सबकी आंखों के तारे बने हैं, जापान के समाचार-पत्रों में उन्होंने सुर्खियां बटोरी हैं, यह भारत के लिये गर्व एवं गौरव का विषय है। मोदी ने अपने वक्तव्य में यूक्रेन में युद्ध दुनिया के लिए एक बड़ी चिंता है कहकर न केवल पूरे विश्व को प्रभावित किया है, बल्कि सभी का ध्यान अपनी ओर खिंचा। हिरोशिमा में युद्ध, हिंसा, आतंकवाद, पर्यावरण, बढ़ती जनसंख्या, आपसी सहयोग जैसे विषयों पर साफ-साफ चर्चा करते हुए मोदी ने भारत की धरती से घोषित हुए ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ मंत्रों को दुनिया के लिये उपयोगी साबित किया है। इस तरह मोदी की भूमिका से उनके बढ़ते कद का भी पता चलता है और इसका भी कि विश्व समुदाय भारत की बात सुन रहा है।
भारत प्रारंभ से ही शांति, अयुद्ध एवं अहिंसा की वकालत करता रहा हूं। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने भारत की इस सोच को बल दिया है, एक अहिंसा एवं शांतिवादी नेता के रूप में अपनी पहचान बनायी है। मोदी भारत पर तीखी हिंसक नजरें रखने वाले देशों को भी सदैव अहिंसक तरीकों से लाइन पर लाने की चेष्टा की है। यही मानवतावादी एवं अहिंसक सोच का परिणाम है कि पाकिस्तान के लगातार आतंक फैलाने एवं भारत की शांति को भंग करने की घटनाओं के उन्होंने कभी युद्ध एवं हिंसा का सहारा नहीं लिया, अन्यथा पाकिस्तान की आज जैसी दुर्दशा है, चाहे जब हिंसा का जबाव हिंसा से या युद्ध से दिया जा सकता है। चीन के लगातार भारत के खिलाफ हो रहे षडयंत्रों के भारत ने संयम बरता है।
हिरोशिमा में भारत एक नयी पहचान लेकर उभरा। मोदी का यूक्रेन के मामले में यह कथन विश्व स्तर पर खूब चर्चित हुआ था कि यह युग युद्ध का नहीं, शांति का है। खास बात यह थी कि उन्होंने यह बात रूसी राष्ट्रपति पुतिन से कही थी। हिरोशिमा में उन्होंने यूक्रेन संकट को लेकर यह भी कहा कि मैं इसे राजनीतिक या आर्थिक विषय नहीं, बल्कि मानवता और मानवीय मूल्यों का मुद्दा मानता हूं। यह कहना कठिन है कि भारतीय प्रधानमंत्री की इन बातों का कितना असर होगा, रूस-यूक्रेन संघर्ष रोकने में कोई सकारात्मक परिवेश बन सकेगा-कहना इतना आसान नहीं है। लेकिन दुनिया के लिये क्या हितकारी है, यह तो समझा ही जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहकर रूस के साथ चीन को भी निशाने पर लिया कि सभी देशों को अंतरराष्ट्रीय कानूनों और एक-दूसरे की संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना चाहिए। किसी को कोई संशय न रहे, इसलिए उन्होंने यह स्पष्ट करने में भी संकोच नहीं किया कि यथास्थिति बदलने के एकतरफा प्रयासों के खिलाफ आवाज उठानी होगी। ऐसी कोई टिप्पणी इसलिए आवश्यक थी कि एक ओर जहां रूस यूक्रेन की संप्रभुता एवं उसकी अखंडता की अनदेखी कर यथास्थिति बदलने की कोशिश कर रहा है, वहीं दूसरी ओर चीन भी अपने पड़ोस में यही काम करने में लगा हुआ है। चीन की विस्तारवादी हरकतों और सीमा विवाद के मामले में उसके अड़ियल रवैये की चपेट में भारत भी है। भारत के लिए जितना आवश्यक यह है कि वह रूस को नसीहत देने में संकोच न करे, उतना ही यह भी कि चीन को आईना दिखाने का कोई अवसर न गंवाए। यह अच्छी बात है कि भारत यह काम लगातार कर रहा है। शंघाई सहयोग संगठन, क्वाड, जी-20 और जी-7 के मंचों से वह अपनी बात कहने में जिस तरह हिचक नहीं रहा, उससे यही पता चलता है कि अंतरराष्ट्रीय पटल पर मोदी के नेतृत्व में एक नया भारत आकार ले रहा है।
शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री ने यूक्रेन के प्रधानमंत्री वोलोदिमीर जेलेंस्की से मुलाकात की और युद्ध समाप्त करने पर जोर दिया। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतीन से प्रधानमंत्री शंघाई में मिले थे, तब भी उन्होंने युद्ध समाप्त करने पर जोर दिया। क्योंकि युद्ध से समूची दुनिया की आपूर्ति श्रंृखला प्रभावित हुई है और महंगाई जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध छिड़ा तो पूरी दुनिया की नजर भारत पर टिक गई थी। माना जा रहा था कि भारत के प्रयासों से इसे रोकने में मदद मिल सकती है। इसलिए कि भारत रूस का घनिष्ठ मित्र है और उसकी मध्यस्थता का उस पर असर हो सकता है। भारत ने इसके लिए पूरा प्रयास किया भी है। जब भी प्रधानमंत्री मोदी ने पुतिन से बात की, उन्होंने उसे सुना तो ध्यान से मगर किया अपने मन की। यूक्रेन से भारत की निकटता रही है, इसलिए वह भी भारत के सुझावों को गंभीरता से लेता रहा है। ऐसे में जब प्रधानमंत्री ने हिरोशिमा में जेलेंस्की से अलग बात की और फिर सम्मेलन के मंच से दोनों देशों के बीच चल रहे युद्ध को मानवता के लिए गंभीर संकट बताया, तो सभी सदस्य देशों ने उस पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी।
समूची दुनिया युद्ध-मुक्त परिवेश चाहती है। कुछ चीन जैसे देश है जो इस सोच में बाधा बने हुए है। पश्चिमी देशों ने पहले ही तय कर रखा था कि इस सम्मेलन में रूस पर और कड़े प्रतिबंध लगाए जाएंगे। समूह सात के देशों ने चीन का नाम लिए बिना कड़ी निंदा की और कहा कि उसे रूस पर यह युद्ध रोकने के लिए दबाव बनाना चाहिए। दरअसल, रूस और यूक्रेन युद्ध अब जिस मोड़ पर पहुंच गया है, वहां जैसे किसी तरह के समझौते की गुंजाइश नजर नहीं आती। पश्चिमी देश खुल कर यूक्रेन के पक्ष में उतर आए हैं, तो चीन खुलकर रूस के साथ खड़ा है। रूस के हमले यूक्रेन पर भारी पड़ रहे हैं। परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की आशंका बनी रहती है। ऐसे में भारत के लिए मध्यस्थता की कोई जगह तलाशना आसान नहीं रह गई है। रूस पर वह दबाव बनाने की कोशिश भी करे, तो कैसे। चीन एक बड़ा रोड़ा है। हकीकत यही है कि इस युद्ध ने मानवता के लिए बड़ा संकट पैदा कर दिया है। अब दुनिया में युद्ध का अंधेरा नहीं, बल्कि शांति का उजाला हो, उसके लिये आवश्यक है- दुनिया के देशों के बीच सहज रिश्तें कायम हो। आज हमारी कड़वी जीभ ए.के.47 से ज्यादा घाव कर रही है। हमारे गुस्सैल नथुने मिथेन से भी ज्यादा विषैली गैस छोड़ रहे हैं। हमारे दिमागों में भी स्वार्थ का शैतान बैठा हुआ है।
यह सब उत्पन्न न हो, ऐसे मनुष्य का निर्माण हो। मनुष्य का आंतरिक रसायन भी बदले, तो बाहरी प्रदूषण में भी परिवर्तन आ सकता है और वह ऐसे सम्मेलनों में पारित प्रस्ताव की तरह केवल कागजों पर नहीं होगा। कभी आंतरिक प्रदूषण के बारे में भी ऐसे सम्मेलन हों। आंतरिक प्रदूषण के अणु भी कितने विनाशकारी होते हैं। यही बात इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने समझाने की कोशिश की है। महात्मा गांधी के प्रिय भजन की वह पंक्ति- ”सबको सन्मति दे भगवान“ में फिलहाल थोड़ा परिवर्तन हो- ”केवल आकाओं को सन्मति दे भगवान“।एक व्यक्ति पहाड़ (जिद के) पर चढ़कर नीचे खडे़ लोगों को चिल्लाकर कहता है, तुम सब मुझे बहुत छोटे दिखाई देते हो। प्रत्युत्तर में नीचे से आवाज आई तुम भी हमें बहुत छोटे दिखाई देते हो। बस! यही कहानी एवं रूस और यूक्रेन युद्ध की स्थितियां तब तक दोहराई जाती रहेगी जब तक आम सहमति सर्वानुमति नहीं बनेगी। इसी के लिये प्रधानमंत्री प्रयासरत है। पिछले कुछ समय से अंतरराष्ट्रीय मामलों में न केवल भारत की अहमियत बढ़ी है, बल्कि प्रमुख देश उससे सहयोग, संपर्क और संवाद के सिलसिले को गति देने में लगे हुए हैं। शायद यही कारण रहा कि आस्ट्रेलिया में क्वाड की बैठक स्थगित हो जाने के बाद भी भारतीय प्रधानमंत्री वहां जा रहे हैं। इसके बाद उन्हें अमेरिका भी जाना है। आज आवश्यक केवल यह नहीं है कि भारत अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपनी सक्रियता बढ़ाए, बल्कि यह भी है कि सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए अपनी दावेदारी आगे बढ़ाता रहे। इसी से दुनिया में शांति एवं मानवतादी सोच का धरातल सुदृढ़ होगा।
प्रेषकः
(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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