आज आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, चैट-जीपीटी का जमाना है। सोशल नेटवर्किंग प्लेटफार्म्स पर एआई(आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस) जनरेट सामग्री आती है और शायद यही कारण है कि आज सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स यथा व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम का क्रेज़ हमारी युवा पीढ़ी में लगातार बढ़ता चला जा रहा है। हमारी युवा पीढ़ी वर्चुअल दुनिया में जी रही है। यह वर्चुअल दुनिया ही आज का युवा पीढ़ी का पहला शौक बन गया है। आभासी दुनिया में खो-कर आज की युवा पीढ़ी न जाने कहाँ खो सी गई है कि उसे अपने आस-पास क्या घटित हो रहा है, क्या नहीं, का आभास ही नहीं है। वह इस आभासी दुनिया के इंद्रजाल में डूब चुका है। यही कारण है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर आज युवाओं द्वारा हाई क्वालिटी, अटरेक्टिव और पर्सनल मेटैरियल को बेखौफ होकर साझा किया जाता है। आज हमारी युवा पीढ़ी ही नहीं मां-बाप,अभिभावक, रिश्तेदार, भाई-बहन सभी जिनको देखो, अपने एंड्रॉयड मोबाइल में व्यस्त नजर आते हैं। हमारे आसपास कौन क्या कर रहा है, अथवा क्या नहीं, हमें इससे आज कोई मतलब या सरोकार नहीं रह गया है। हम घर में उपस्थित सदस्यों से आज ढंग से बातचीत तक नहीं करते,लेकिन आभासी दुनिया के दोस्तों, मित्रों से बातचीत करके(चैट करके) हम मुस्कुराते हैं। हमारा घर, हमारा परिवार, हमारे बच्चे आज हमारी दुनिया कम, सोशल नेटवर्किंग साइट्स आज हमारी दुनिया ज्यादा नजर आने लगी है। यहाँ तक कि हमारे पास अपनों के लिए बातचीत तक करने का समय नहीं होता। दिन-रात,उठते-बैठते,खाते-पीते,नहाते हर वक्त हम अपने एंड्रॉयड मोबाइल पर बिजी रहते हैं। हम आज सोशल मीडिया पर अपनी विभिन्न फोटोज पोस्ट करते हैं, कुछ न कुछ लिखते हैं, शेयर भी करते हैं और लाइक, कमेंट्स आदि भी करते हैं। हमें यह आभासी(वर्चुअल) दुनिया हमेशा अच्छी लगती है, हम इससे एक पल भी दूर नहीं होना चाहते हैं। हम अपने जीवन में हो रही चीजों के बारे में वर्चुअल दुनिया पर व्यस्त लोगों को तो बताना चाहते हैं लेकिन अपने पास बैठे,अपने साथ रह रहे लोगों, अपनों के साथ अपने दुख,तकलीफ, हंसी-खुशी को शेयर नहीं करना चाहते। हम तकनीक में आज इतने रम व बस गये हैं कि हमें अपने अपनों के बारे में कोई भान ही नहीं है और हम उनमें कोई रूचि नहीं दिखाते,उनसे बातचीत नहीं करते। हम तो आज सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर एक फोटो या विडियो अपलोड करने के बाद उस पर क्या कमेंट्स आयेंगें, क्या नहीं, कितने कमेंट्स आयेंगे, शेयर कितने लोग करेंगे, लाइक कितने होंगे, डिस्लाइक कितने होंगे इसकी उधेड़बुन में लगे रहते हैं। आज देश में कोई किशोर ही ऐसा होगा जिसका सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अकाउंट न बना हुआ हो। बहुत से किशोरों के तो दो-दो,तीन-तीन अकांउट तक सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हैं। आज हमारा किशोर सोशल नेटवर्किंग साइट्स की आभासी दुनिया के दलदल में लगातार घसीटता चला जा रहा है। वह फोन से एक पल भी दूर नहीं होना चाहता है। आज हमारा युवा विभिन्न सेलेब्रिटीज़, महान् हस्तियों, पर्सनैलिटीज को फॉलो करता है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के प्रति उसमें बहुत क्रेज है। वे भी विभिन्न सेलेब्रिटीज़, फेमस पर्सनालिटीज की तरह अपने अकाउंट पर मिलियन्स लाइक चाहते हैं। उनके इतने लाइक कभी नहीं आ पाते हैं जितने कि बड़ी पर्सनैलिटीज के आते हैं और कम लाइक आने के चलते वे(हमारे युवा) स्ट्रेस और टेंशन में आ जाते हैं, अथवा आ रहे हैं। बच्चे आज लगातार एंग्जाइटी, ड्रिप्रेशन के शिकार होते चले जा रहे हैं। आज हमारे बच्चे खेल खेलने के लिए मैदानों में नहीं जाते,बल्कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर गेम खेलते हैं, सोशल मीडिया को ही वे खेल का मैदान समझने लगे हैं। बच्चे आज घर आए रिश्तेदारों से मिलना पसंद नहीं करते। बातचीत तो बहुत दूर की बात है। हमारे बच्चे फोन के साथ अकेले रहना पसंद करते हैं और जब वे एंड्रॉयड स्मार्टफोन का उपयोग कर रहे होते हैं तो किसी भी तरह का व्यवधान नहीं चाहते। यह एक तरह का सोशल फोबिया है। दूसरे शब्दों में कहें तो सोशल फोबिया एक मानसिक विकार है, जिसे सोशल एंग्जायटी डिसऑर्डर भी कहा जाता है। ऐसी स्थिति में बच्चा सामाजिक स्थितियों से भागने लगता है, घर-परिवार के कामों में, अध्ययन में,दोस्तों, रिश्तेदारों से बातचीत करने में कोई रूचि नहीं लेता है। न किसी से आंखें मिलाना पसंद करता है, न किसी से बातचीत करना पसंद करता है। इससे बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य व शैक्षिणिक गतिविधियों पर विशेष असर पड़ता है। कुल मिलाकर यह बात कही जा सकती है कि आज सोशल नेटवर्किंग साइट्स के अधिक प्रयोग के कारण बच्चों के व्यवहार में लगातार परिवर्तन, बदलाव देखने को मिल रहे हैं। वे चिड़चिड़े हो रहे हैं, उदासी व अवसाद के शिकार हो रहे हैं। आज न तो बच्चों के पास पेरेंट्स के लिए समय है और न ही पेरेंट्स के पास बच्चों के लिए समय बचा है। जब पेरेंट्स मोबाइल फोन पर हर समय व्यस्त रहेंगे तो बच्चों को उनको फॉलो करना स्वाभाविक ही है, क्योंकि बच्चे अक्सर अपने अभिभावकों, पेरेंट्स को इमीटेट(नकल) करते हैं, उनसे सीखते हैं। बच्चों को एंग्जाइटी, डिप्रेशन व टेंशन से बचाने के लिए यह बहुत जरूरी है कि सबसे पहले पेरेंट्स स्वयं सोशल नेटवर्किंग साइट्स से दूरी बनाएं और उनका सीमित विवेकपूर्ण उपयोग, प्रयोग करें। पेंरेंट्स को यह चाहिए कि वे अपने बच्चों को सोशल नेटवर्किंग साइट्स के उपयोग व फायदों के साथ ही विभिन्न नुकसान आदि के बारे में जानकारी दें। आज यदि हम सब घर में एकसाथ बैठकर खाना भी खाते हैं तो हमारे पास ‘स्क्रीन फ्री’ जोन नहीं होता। हम मोबाइल में देखते देखते बिना किसी से बातचीत किए खाना खा लेते हैं और हमें यह तक भी ध्यान नहीं रहता है कि हमनें खाया क्या है ? अभिभावक, माता पिता होते हुए हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम अपने डायनिंग टेबल और बैडरूम में स्क्रीन फ्री जोन रखें। हम अपने बच्चों से समय समय पर उनकी समस्याओं को लेकर सहजता से बातचीत करते रहें, उनके पास बैठें, उन्हें कहीं पर घुमाने ले जाएं, उन पर हमेशा ध्यान दें। घर में रहते हुए हम स्वयं भी स्क्रीन फ्री जोन का पालन करें और बच्चों को भी इसका पालन करने के लिए कहें। बच्चों को गुड़ खाना छोड़ने की नसीहत देने से अच्छा यह है कि हम स्वयं पहले खुद गुड़ खाना छोड़ें। हम अपने बच्चों के लिए रोल मॉडल बनने का प्रयास करें, उनके साथ सकारात्मकता से पेश आएं। हम अपने बच्चों को यह समझाएं कि सोशल मीडिया की आभासी दुनिया, आभासी ही है, उसकी वास्तविक दुनिया से कभी भी होड़ नहीं हो सकती है। वास्तविक दुनिया, वास्तविक दुनिया(असल जिंदगी) है। हम बच्चों को यह बताने का प्रयास करें कि तुलना(कंपेरिजन) किसी भी हाल में ठीक नहीं है, विशेष रूप से आभासी दुनिया के लिए। हम अपने बच्चों को यह बताएं कि सोशल मीडिया में सुकून को नहीं खोजा जा सकता है। वर्चुअल दुनिया में व्यस्तता वास्तव में हमें असली जीवन से दूर कर देती है। हम अपने बच्चों में सकारात्मकता पैदा करें, उन्हें अच्छी नींद लेने, बातचीत करने,अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित करें। हम बच्चों को बतायें कि किस प्रकार से हम ‘सोशल फोबिया’ से निपट सकते हैं। मसलन हम उन्हें यह बताएं कि – तनाव महसूस होने पर लंबी- गहरी सांसें ली जा सकती हैं, सारा ध्यान श्वासों पर केंद्रित किया जा सकता है, इससे हमारा दिमाग नकारात्मक विचारों से भटकेगा और मन को सुकून,शांति, संयम व सकारात्मकता, नवीन ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति का एहसास होगा। हम बच्चों को ‘नेचर-थेरेपी’ के बारे में भी बता सकते हैं कि किस प्रकार से प्राकृतिक वातावरण में हम सुकून, राहत, अच्छा महसूस कर सकते हैं। हम बच्चों को यह बताएं कि ‘नेचर-थेरेपी’ से व्यक्ति में फील-गुड हार्मोन में बढ़ोतरी होती है और कॉर्टिसोल हार्मोन का स्त्राव घटाने में मदद मिलती है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के प्रयोग से हमारी आंखों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। नकारात्मक सोच हम पर हावी होने लगती है। आज यदि हमारे आस पास फेक दुनिया(वर्चुअल दुनिया) बन रही है तो उसका कारण हम स्वयं ही है। कुल मिलाकर यह बात कही जा सकती है कि आज के समय में हमें सोशल नेटवर्किंग साइट्स का सीमित, विवेकपूर्ण उपयोग ही करना चाहिए।
(आर्टिकल का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।)
सुनील कुमार महला,
स्वतंत्र लेखक व युवा साहित्यकार