महान संगीतकार चित्रगुप्त की पुण्य तिथि 14 जनवरी पर विशेष
कायस्थ कुल गौरव महान संगीतकार चित्रगुप्त की पुण्य तिथि 14 जनवरी को उनके संगीत प्रेमी और संगी-साथी श्रद्धासुमन अर्पित कर रहे हैं। बिहार के एक छोटे से गांव में जन्मे और संगीत की दुनिया में तहलका मचाने वाले संगीतकार चित्रगुप्त नये संगीतकारों के लिए प्रेरणा स्रोत से कम नहीं हैं। संगीतकार चित्रगुप्त का पूरा नाम चित्रगुप्त श्रीवास्तव था। उनका जन्म 16 नवम्बर सन 1917 को बिहार के गोपालगंज जिले के कमरैनी गाँव के शिक्षित संभ्रांत कायस्थ परिवार में हुआ था,तो 14 जनवरी 1991 को मकर संक्रांति वाले दिन उन्होंने मुम्बई में अंतिम सांस ली। मकर संक्रांति से जिस तरह पतंगों का नाता हैं, उसी तरह संगीतकार चित्रगुप्त का नाम भी जुड़ा हुआ है। पर्व और पतंगों से उनका रिश्ता सुरीला भी है, रूहानी भी। हर साल मकर संक्रांति पर उनकी धुन वाला गीत ‘चली-चली रे पतंग मेरी चली रे’ (भाभी) उत्साह-उमंग में नए रंग घोल देता है।पचास के दशक में इस गीत की लोकप्रियता के बाद चित्रगुप्त ने राजेंद्र कुमार-माला सिन्हा की ‘पतंग‘ फिल्म के लिए एक और पतंग-गीत रचा-‘ये दुनिया पतंग नित बदले ये रंग, कोई जाने न उड़ाने वाला कौन है।’ अजीब संयोग था कि 14 जनवरी, 1991 को मकर संक्रांति पर ही चित्रगुप्त की सांस की डोर टूट गई। बाकायदा शास्त्रीय संगीत की तालीम लेकर फिल्मों में आए चित्रगुप्त के लिए संगीत इबादत था। वह बचपन से भक्ति संगीत के रसिया थे। उनके ‘जय-जय है जगदम्बे माता‘ (गंगा की लहरें) और ‘तुम्ही हो माता, पिता तुम्ही हो’ (मैं चुप रहूंगी) जैसे भजनों में सुर, स्वर, लय, सभी भक्ति में लीन महसूस होते हैं। भक्ति के यही रंग उन्होंने ‘हाय रे तेरे चंचल नैनवा‘ (ऊंचे लोग), ‘दिल का दिया जलाके गया ये कौन मेरी अंगनाई में‘ (आकाशदीप), ‘मचलती हुई हवा में छम-छम, हमारे संग-संग चलें‘ (गंगा की लहरें), ‘इक रात में दो-दो चांद खिले‘(बरखा) और ‘दिल को लाख संभाला जी‘ (गेस्ट हाउस) जैसे कई प्रेमिल गीतों में बिखेरे। चित्रगुप्त की प्रारंभिक एवं माध्यमिक शिक्षा-दीक्षा गांव में ही हुई, बाद में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए उन्होंने पटना विश्वविद्यालय, पटना में दाखिला लिया और अर्थशास्त्र में स्नाकोत्तर की डिग्री हासिल की। अपने बड़े भाई जगमोहन आजाद, जो पेशे से पत्रकार थे और संगीत के बेहद शौकीन थे, से ही उत्प्रेरित होकर चित्रगुप्त ने पं. शिव प्रसाद त्रिपाठी से विधिवत शास्त्रीय संगीत की शिक्षा प्राप्त की।इतना ही नही भारतखंडे महाविद्यालय, लखनऊ से नोट्स मंगवा कर संगीत का नियमित अभ्यास किया करते थे। उन दिनों वह पटना विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में अध्यापन भी कर रहे थे, लेकिन इस संगीत साधक का मन यहाँ कहाँ लगने वाला था, फलस्वरूप व्याख्याता का पद त्याग कर सन 1945 ई. में वे बम्बई आज की मुम्बई में चले गए। चित्रगुप्त उस समय के सभी फिल्मी संगीतकरों में सबसे अधिक पढ़े लिखे संगीतकार थे।
बुम्बई पहुंचने के बात शुरूआती दिनों में चित्रगुप्त के पास काम का अभाव रहा। इसी बीच वह संगीतकार एच.पी. दास के संपर्क में आये और उनके संगीत निर्देशन में बतौर कोरस गायक एक गाना कोरस में गाया। पुनः उनकी एक दिन बादामी नाम के मित्र से मित्रता होती है और उसके माध्यम से वह संगीतकार एस.एन. त्रिपाठी से मिलने जाने लगे, जहां उनकी कला कौशल से ओत-प्रोत हो कर त्रिपाठी जी ने उनके सामने अपना सहायक बनने का प्रस्ताव रखा। चित्रगुप्त इसे सहर्ष स्वीकार कर उनके साथ धुनों की यात्रा पर निकल पड़े। तब के संगीतकारों में नौटंकी, कीर्तन, पारंपरिक रीति रिवाज जैसे-शादी विवाह, पर्व-त्योहार एवं लोक संस्कृति में रचा बसा शैलियों में घुलनशील संगीत देने की क्षमता चित्रगुप्त के अलावा शायद ही किसी में रहा होगा। उनका संगीत जितना दया, भाव एवं करुणा से हृदय को छूता है उतना ही चहलकदमी भरी चंचलता भी प्रदान करता करता है।अपने बड़े भाई आनंद के साथ मिलकर आमिर खान अभिनीत फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ का संगीत बनाने वाले मिलिंद ने बताया कि मंगेशकर ने उनके पिता एवं संगीतकार चित्रगुप्त से कहा था कि वह उनके बेटे का नाम रखना चाहती हैं।
स्वतंत्र रूप से चित्रगुप्त को पहली बार संगीत देना का मौका फिल्म ‘लेडी रोबिनहुड’ (1946) में मिला, जिसमें उन्होंने राजकुमारी के साथ दो सुमधुर गीत भी गाये. यहीं से चित्रगुप्त का फिल्मी सफर गति लेना शुरू कर दिया और चित्रगुप्त फिल्मों में बेजोड़ संगीत देने में मशगूल हो गए। चित्रगुप्त का चित्रगुप्ताना अंदाज लोगों के मन मस्तिष्क पर छाया रहा। चित्रगुप्त का संगीत हर रंग में अनुपम अभिर्भाव से मंत्रमुग्ध करता है ,जहां कीर्तन, बाउल शैली में देवोपम सौंदर्य सम्मोहित करती है, वहीं वात्सल्य रस में मां की लोरी भी शिशुओं को मीठी नींद में सोने पर मजबूर के देता है, प्रेमाग्रह करते प्रेमी अपनी प्रेमिका के साथ खूब रोमांचकारी लगता है, तो वहीं वेदना, विरह को श्रवण करते ही हृदय को झकझोर देता है. उनके खूबियों की फेहरिस्त तो बहुत लम्बी है, परन्तु उनके कुछ गीतों को याद करें तो आपको उनकी नैसर्गिक प्रतिभा का अंदाजा सहज ही लग जायेगा. जैसे कि धार्मिक गीतों में ‘माता-पिता की सेवा करके’ (भक्त पुंडलिक), ‘कैलाशा नाथ प्रभु अविनाशी, नटराजन मेरे मनवासी’ (शिवभक्त) तो छेड़छाड़ में ‘नजर नजर से उलझ गई अभी मोहब्बत नई नई’ (इंसाफ), लोक शैली में ‘जिया लहराए’ (जय श्री), ‘जा रे जादूगर देखि तेरी जादूगरी’ (भाभी). 1962 में बनी पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढैबो’ में चित्रगुप्त का संगीत एवं शैलेन्द्र का गीत बिहार और पूर्वाेत्तर के हर उम्र के तबकों पर छाया रहा, तत्कालीन उत्सवों में खास तौर से शादी-विवाह के मौके पर जहां बाराती पक्ष के युवकों ‘अब तो लागत मोरा सोलहवां साल’ (सुमन कल्याणपुर) पर खिलखिलाते तो वहीं साराती पक्ष की युवतियां ‘कहे बासुरिया बजबलू’ (लता) पर मनोरंजन करतीं, ठीक वहीं जब विदाई का बेला पर ‘सोनवा के पिंजरा में बंद भइल हाय राम’ (रफी) की बारी आती है तो किसके आंखों से आंसू नही छलक पड़ते. लेकिन जब ‘हंस हंस के देखा तू एक बेरिया’ तथा ‘गोरकी पतरकी रे मरे गूलेलबा जियरा उडी उडी जाय’ (बलम परदेसिया) जैसे ही कानो में घुलता है की मन तरंग आज भी मचल मचल सा जाता है। ‘जल्दी जल्दी चल रे काहारा, सुरुज डूबे रे नदिया’ (धरती मैया) जैसे लोकशैली में रचित संगीत चित्रगुप्त को बिहार की मिट्टी की वास्तविक सपूत प्रमाणित करता है ।
चित्रगुप्त 1988 में जब फिल्म ‘शिवगंगा’ के लिए संगीत बना रहे थे, जो उनके जीवन काल का अंतिम फिल्म रही, तभी ‘कयामत से कयामत तक’ में उनके संगीतकार पुत्रों की जोड़ी ‘आनंद-मिलिंद’ का संगीत भी युवाओं पर अमिट छाप छोड़ कर उन्हें गौरवान्वित कर रहा था। उसी फिल्म का एक गाना ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा’ मानो चित्रगुप्त के साथ किया गया वादा आनंद-मिलिंद दोनों भाइयों ने निभा दिया हो। अपने बड़े भाई आनंद के साथ मिलकर आमिर खान अभिनीत फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ का संगीत बनाने वाले मिलिंद ने बताया कि लता मंगेशकर ने उनके पिता एवं संगीतकार चित्रगुप्त से कहा था कि वह उनके बेटे का नाम रखना चाहती हैं।
चित्रगुप्त ‘रोबिनहुड’ (1946) से लेकर ‘शिवगंगा’ (1988) तक लता के साथ रूमानियत तो रफी की शरारत, गीता की शराफत तो किशोर का चुलबुलाहट, मन्ना डे का शास्त्रीय सरगम हो तो महेंद्र का सुर तरंग, मुकेश का दर्द तो आशा, उषा, सुमन की मखमली स्वर स्पर्शों से अपनी प्राकृतिक, सामाजिक सांस्कृतिक, सौंदर्यबोध एवं शोधपरक धुनों की यात्रा करते करते 72 वर्ष की आयु में 14 जनवरी 1991 (मकर संक्रांति) को अमरत्व प्राप्त कर गए। चित्रगुप्त अपने अंतिम दिनों तक मुंबई स्थित बंगला ‘प्रभात’, खार में रहे और अपने इलाज के दौरान मुम्बई हास्पिटल में गुजर गये। गुणी संगीतज्ञों में उनकी कमी की चर्चा आज भी खूब होती है।
संजय सक्सेना,लखनऊ skslko28@gmail.com M-8299050585,9454105568