जीवन में जब कुछ नया करने जा रहे होते है तो एक अज्ञात सा भय हमारे मन में बना रहता है। यह एक स्वाभाविक अवस्था होती है लेकिन अधिकाशंत यह पाया जाता है कि यह भय केवल हमारे मन के भीतर बना होता है जो हमें कुुछ प्रारंभ करने के लिए भयभीत करता रहता है इसके विपरीत जब हम स्थिति के सम्मुख होते है तो वह कार्य स्वाभाविक प्रक्रिया से पूर्ण हो जाता है। मनावैज्ञानिक भाषा में इसे फोबिया भी कहा जाता है। उदाहरण के लिए बचपन मे जब हम प्रथम बार स्टेज पर प्रस्तुति देने के लिए जाते थे तो भयभीत होते थे लेकिन प्रस्तुति करने के बाद हमे विश्वास हीं नहीं होता था कि यह प्रस्तुति मैंने दी है। आवश्यकता के समय जब हमें किसी प्रशासनिक अधिकारी से मिलने की आवश्यकता होती है तो हमारा भय रहता है कि कैसे मिलूंगा, क्या कहूंगा। ऐसे में यदि हम सत्य के साथ है तो भयहीन होकर,पूर्ण आत्मविश्वास व नियंत्रित वाणी से अधिकारी से मिले तो मिलने के बाद हमें अहसास होगा कि जैसे वह पूर्व में ही मुझे जानता है और मेरी बात को सुन व समझ रहा है। यदि भय भीतर बना रहेगा तो वह हमारे आत्मविश्वास को न्यून कर देगा जिसका सीधा असर हमारे बात रखने की शैली को परिवर्तित कर देगा। इस तरह के भय का एक साथी शब्द होता है जिसें हम अक्सर प्रयोग में लेते है वह है यदि। हम कार्य प्रारंभ करने के पूर्व यदि शब्द को मन में बैठा लेते है तो भय स्वत: ही हमारी ओर खिंचा चला जाता है। यदि यह करूंगा तो यह हो जाएगा, यदि यह करूंगा तो मेरी प्रतिष्ठा पर असर पडेगा आदि आदि।
विशेषकर मैं नवपीढ़ी को यह कहना चाहूंगा कि वे यदि से बाहर निकलकर रूचिकर कार्य को समाज के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए अपने आपका आंकलन कभी भी कम ना करे। उन्हें परिणाम के पूर्व ही असफ लता मिलने की सोच रखना बेमानी ही होगा। भय मुक्त होकर आत्मविश्वास के दामन को ना छोड़े क्योंकि भविष्य उन्हीं की राह जोह रहा है।
DINESH K.GARG ( POSITIVITY ENVOYER)
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