मित्रजनो व परिजनो के दु:ख दर्द को जानने के समय हम उन्हें उन्हें धैर्य बनाए रखने की व सहनशील बनने का ही सूत्र सुझाते है। किसी दूसरे की व्यथा सुनकर हमारे पास इसके अलावा कोई समझाने का विकल्प भी नहीं रहता है लेकिन क्या हम अपनी व्यक्तिगत जिदंगी में सहनशील बन पाए है विचार कर लेना चाहिए? दूसरो को संदेश देने में एक मजबूत आधार तभी माना जा सकता है जब हम अपनी स्वयं की जिदंगी में उसे अपना रहे हो। वर्तमान सामाजिक परिवेश व रिश्तो में एक दूसरे से उम्मीदो के बढऩे के साथ व प्रारंभ से ही एकल परिवार में रहने की वजह से धैर्य का दामन पनप ही पा रहा है। पिता की पुत्र से, पत्नी की पति से, मित्रो से मित्रो के बीच आपसी समझ में तालमेल बन ही नहीं पा रहा है थोडे समय के लिए स्वार्थवश जुड़ाव होता है लेकिन बाद में वही रिश्ते दर्द का पर्याय बन जाते है। समाज में एक वर्ग हमेशा यह सोच रखता है कि स्त्रियों को और अधिक सहनशीनल बनना चाहिए लेकिन क्या एक पक्ष के ही सहनशील बन जाने से रिश्तो में बन आई समस्याओं का समाधान संभव हो सकता है? मेरा मानना है कि प्रकृति में नर और नारी दोनो ही समाज व परिवार के मूल आधार होते है उन्हें अलग अलग दिशा निर्देशो में नहीं बांधा जाना चाहिए। जहां नारी को अपने गृहस्थ के पालन पोषण में, माता पिता की नित्य सेवा में धैर्य रखना चाहिए वहीं पुरूष को परिवार में सभी को एकजुटता बनाए रखने के लिए सहनशीलता का कवच तो धारण करना ही चाहिए। सहनशील बनने के लिए करना इतना भर ही तो है कि बोली और सुनी गई बातो को इतिहास बनाना बंद कर देना चाहिए। अज्ञानतावश किसी का कहा व बोला गया परिस्थितिवश हुआ है ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिए। अपनी सहनशीलता का कवच इतना मजबूत धारण कर लेना चाहिए ताकि उसे तोडऩे का प्रयास कोई अपना ही नहीं कर पाएं। दु:ख दर्द मिला है तो परमशक्ति जिसपर हमें पूर्ण विश्वास बना हुआ है केवल उसके समक्ष अपना दु:ख दर्द जाहिर करना उचित होगा क्योंकि अन्य के बीच जाहिर किए गए दर्द की सुनवाई नहीं हो सकती क्योंकि उन्हीं में से किसी के द्वारा ही वह दर्द हमें दिया होता है। जहां आकर अपनी सहनशीलता जबाब दे रही हो वहां मौन को अपना लेना चाहिए। एक बात और स्मरण रखे कि जिस स्थान पर और जिस चर्चा के दौरान हमारी सहनशीलता का परिचय लिया जा रहा हो उस स्थान मात्र से क्षणिक भर के लिए दूर हो जाना चाहिए और अपने आपको अपने रूचिकर कार्य में व्यस्त कर लेना चाहिए। सहनशीन व्यक्तित्व की आंखो में छिपे दर्द को एक मानवीय भावनाओं से भरा व्यक्तित्व और हमारा ईष्ट ही समझ सकता है।
DINESH K.GARG ( POSITIVITY ENVOYER)
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