हास्य़-व्यंग्य

आप मेरी धर्मपत्नि को ना बतायें तो आज मैं आपको एक राज की बात बताना चाहता हूं. एक बार सुरैया ने मेरे से आंखें लडाई थी और वह भी तब जबकि मैं दस वर्ष का ही था.
सन 1952 की बात है. देश, आजादी के साथ साथ, विभाजन की सजा भी भुगत रहा था. देश छोडकर गए लोगों का घरेलू सामान कबाड में बिक रहा था. उन्ही दिनों मैं अजमेर के केसरगंज स्थित ऋषी दयानंद स्कूल में तीसरी कक्षा में पढता था. घर से स्कूल के रास्ते में आते-जाते एक कबाडी की दुकान पडती थी जहां एक खूबसूरत तस्वीर टंगी रहती थी. एक रोज जब मैंने गौर से उस तस्वीर की तरफ देखा तो लगा कि वह तो आंखें लडा रही है. मैंने जिज्ञासावश उस दुकान के कई चक्कर लगाये फिर स्कूल में आकर मैंने अपने जिगरी दोस्त से इसका जिक्र किया. पहले तो उसने इस बात पर विश्वास नही किया कि कोई लडकी कि तस्वीर भी आंखें लडा सकती है लेकिन मेरे द्वारा कई कसमें खाने पर वह दोस्त मेरे साथ उस दुकान तक आया और उसने भी वह तस्वीर देखी तो कहा कि यह तो सुरैया है.
हम दोनों वहां कुछ देर खडे रहकर उसे देखते रहे. हमारी इस हरकत को दुकान का कबाडी भांप गया और मुस्कराते हुए उसने रहस्येदघाटन किया कि तस्वीर एक दिवाल घडी पर चिपकी हुई है और उसका पैन्डुलम तस्वीर की आंखों से जुडा हुआ है. पैन्डुलम के दांये-बांये जाने पर आंखों की पुतलियां भी दायें-बांये चलती है. निराश होकर हम लोग अपने अपने घर की तरफ लौट गए.