इसी साल राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं। गुजरात के हाल ही संपन्न विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली प्रचंड जीत के बाद राजनीतिक विष्लेशक कयास लगा रहे हैं कि राजस्थान में भी टिकट वितरण में गुजरात मॉडल लागू किया जाएगा। उनका अनुमान है कि तकरीबन चालीस विधायकों के टिकट काट दिए जाएंगे। किन्हीं अर्थों में गुजरात फार्मूला ठीक भी है, मगर गुजरात व राजस्थान की पृश्ठभूमि में काफी अंतर है। केवल राजस्थान ही नहीं, पूरे भारत में गुजरात तीन लोक से मथुरा न्यारी है। उसकी तुलना किसी और राज्य से की ही नहीं जा सकती। राजस्थान में क्या संभावनाएं बनती हैं, देखिए यह रिपोर्ट-
इसी साल राजस्थान विधानसभा के चुनाव राजस्थान और गुजरात की राजनीति की तुलनात्मक समीक्षा करें तो सबसे बडी बात यह है कि राजस्थान में भाजपा विपक्ष में है, जबकि गुजरात में लंबे समय से भाजपा की सरकार रही है। वहां एंटी इंन्कंबेंसी फैक्टर से निपटने का एक मात्र रास्ता यह था कि वहां बडे पैमाने पर नए चेहरे चुनाव मैदान में उतारे जाते। ताकि जनता का ध्यान पुरानी स्मृतियों से हट जाए। इसमें भाजपा पूरी तरह से कामयाब भी रही। इसके विपरीत राजस्थान में पार्टी की कोई एंटी इंकबेंसी नहीं है, चूंकि वह विपक्ष में है। उलटे उसे तो कांग्रेस की मौजूदा सरकार की एंटी इंकंबेंसी का फायदा मिलना है। भाजपा में जो इंकंबेंसी है, वह दो तीन बार जीत चुके विधायकों के प्रति हो सकती है। या फिर ऐसे विधायकों के प्रति, जिनका कार्यकाल नॉन परफोरमिंग है। एक पहलु यह भी है कि अगर एंटी इंकंबेंसी को आधार बना कर दो तीन बार जीते विधायकों के टिकट काट दिए गए तो वे नए प्रत्याषी को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। इसलिए टिकट काटने से पहले पार्टी हाईकमान को दस बार सोचना होगा। हां, मोटे तौर पर भले ही गुजरात फार्मूला लागू किया जाए मगर जिताउ विधायक का टिकट काट देने का निर्णय घातक भी हो सकता है।
दूसरा सबसे बडा फैक्टर यह है कि गुजरात में वोटों का धु्रवीकरण धर्म के आधार पर है। लंबे समय से। हिंदूवाद वहां बहुत गहरे पैठा हुआ है। बेषक जातिवाद का भी असर है, मगर अधिसंख्य हिंदूवाद के नाम पर लामबंद हैं। जातीय गोलबंदी कम है। इसके अतिरिक्त गुजराती अस्मिता भी अहम मुद्दा है। अधिकतर गुजरातियों को नरेन्द्र मोदी के प्रति नाज है कि वे देष के प्रधानमंत्री हैं। उनके वजूद पर किसी भी प्रकार विपरीत असर नहीं पडना चाहिए। इसी कारण बडे पैमाने पर विधायकों के टिकट काट दिए जाने के बाद भी मोदी जी के नाम पर भाजपा जीत गई। जिनके टिकट काटे गए, उनकी हिम्मत ही नहीं हुई कि बगावत अथवा भीतरघात कर सकें। क्योंकि अधिसंख्य जीते भी मोदी के नाम पर ही थे।
राजस्थान की स्थिति अलग है। हालांकि यहां भी भाजपा का आधार मोदी जी व हिंदूवाद है, लेकिन यहां जातिवाद का प्रभाव अधिक है। लोग जातिवाद के नाम पर वोट डालते हैं। कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों टिकट वितरण के दौरान जातीय समीकरण पर फोकस रखती हैं। विधायक की जीत में पार्टी का असर तो होता ही है, लेकिन साथ ही उसकी जाति की भी भूमिका होती है।
एक बडा फैक्टर यह भी है कि गुजरात में कोई स्थानीय क्षत्रप प्रभावषाली स्थिति में नहीं है, बन ही नहीं पाया, जो बना उसे समय रहते ठंडे बस्ते में डाल दिया गया, जबकि राजस्थान में वसुधंरा राजे एक बडा फैक्टर है। उन्हें षनै षनै कमजोर करने की कोषिष कामयाब नहीं हो पाई। आज भी भाजपा में उनके मुकाबले दूसरा कोई बडा चेहरा नहीं है। जो भी गिने या गिनाए जा रहे हैं, वे पार्टी के दम पर वजूद में हैं, खुद के दम पर नहीं। यदि गुजरात फार्मूला लागू करते वक्त वसुंधरा राजे को नजरअंदाज करने की कोषिष की गई तो वह नुकसानदेह हो सकती है।