
भरभरा कर गिर पड़ीं इमारतें सभी इतिहास की
करनी निज़ाम की देखिए बायस है उपहास की
फूंक कर करोड़ों की दौलत शाह-ए-आलम खुश हैं सारे
व्यवस्था ही करवा दी होती कुछ बेघरों के आवास की
हैं फ़क़त बयानबाजियां और इल्ज़ामों पर इल्ज़ाम हैं
झेल रही आवाम नतीजे सियासती बकवास की
सड़ रहे हैं सभा सदन, दरबारों में भी सड़ांध है
अल्फाज़ से भी आने लगी है बदबू हमें संडास की
चीख-पुकार, हाहाकार, बिलखना-रोना, रुदन-क्रन्दन
विलासिता की आँखों पे पट्टी और अनदेखी संत्रास की
बन कर खजांची बैठे हैं कुछ मतलबपरस्त कुछ सिरफिरे
मार कर सेंध उम्मीदों पर, इज़्जत लूटी विश्वास की
तर हलक, बदतर नीयत, जाम भरे हैं ख़ून के
तरबतर दरिया को तो कदर नहीं है प्यास की
अमित टण्डन