23 जुलाई 2025 को नई दिल्ली में हुई दरगाह ख्वाजा साहब अजमेर की प्रशासनिक कमेटी की दरगाह की व्यवस्थाओं को लेकर बैठक में दरगाह के खादिमों को लाईसेंस देने की बात फिर से उठी। फिर से दरगाह कमेटी ने निर्णय लिया कि खादिमों को लाईसेंस दिए जाएंगें और इस बार लाईसेंस के लिए पात्रता यानि काबिलियत के भी नियम बना दिए गए। सवाल उठता है जो कौम दरअसल सैयदजादे और शेखजादे खादिम समुदाय लगभग तीन से चार हजार लोगों का वंशानुगत समूह है, पिछले 13वीं शताब्दि से आज तक पीढी दर पीढी दरगाह में खिदमत करती आ रही हो उसको अब सात सौ साल बाद मात्र 70 साल पहले गठित कमेटी लाईसेंस देगी वो भी शर्तो के साथ , यह बडी हास्यास्पद बात है। गौर करने लायक यह है कि अजमेर देशभर में सबसे पुराने एतिहासिक शहरो में से एक है। सातवीं शताब्दि में आबाद हुए अजमेर में रहने वाली पीढी लुप्त हो चुकी है। कहने को तो अनेक जातियां अपना संबंध पृथ्वीराज चौहान के वंश से बताती हैं लेकिन उनके पास प्रमाणित वंशावली नहीं मिलेगी जो पृथ्वीराज चौहान या उससे भी पहले अजयराज चौहान से जुडती हो। चार सौ पहले बसे जयपुर में राजपरिवार के पास जरुर वंशावली है जो महाराज जयसिंह या मानसिंह या उससे भी पहले कच्छावा कौम की पीढी तक जाती है। लेकिन आम परिवार के पास नहीं है। ऐसे ही चित्तौड, उदयपुर, बीकानेर के राजघरानों के पास मिल सकती है और वर्तमान में उनका वंश चल रहा है। लेकिन अजमेर में किसी आम परिवार के पास राजा अजयराज जिन्होने अजमेर बसाया या सम्राट पृथ्वीराज चौहान से जुडी वंशावली नहीं मिलेगी। मौखिक रुप से कई जातियां दावा जरुर करती है। अजमेर में 12वीं शताब्दि के अंत में ईरान से अजमेर पहुंचे सूफी संत हजरत ख्वाजा मोइनुददीन चिश्ती और उनके साथ आया काफिला बसा। 13वीं शताब्दि में दरगाह अस्तित्व में आई और ख्वाजा मोइनुददीन चिश्ती के खिदमतगार की अगली पीढी ने जायरीन को जियारत कराने का काम शुरु किया जिन्हे खादिम कहा जाता है। उन्ही खादिमों की पीढीयां आज भी दरगाह में वही काम कर रही हैं और सबसे खास बात यह है कि भारत पाक के विभाजन के समय जब अजमेर में बडी संख्या में आबाद मुसलमान, परिवार सहित पाकिस्तान जा रहे थे तब खादिमों में से कोई भी पाकिस्तान नहीं गया और बुजुर्गो से सुना है कि जब विभाजन के समय दंगें हो रहे थे और अफरा तफरी मची थी तब खादिम पुरुष और महिलाएं दरगाह में आस्ताने में खडे रो रहे थे और फरियाद कर रहे थे कि शांति हो जाए। यह खादिमों की देशभक्ति का सबूत भी है जिसे अनदेखा किया जाता है। आठ सौ साल पुरानी प्रमाणित कौम को वो कमेटी लाईसेंस देने की बात कर रही है जिसका वजूद ही विभाजन के बाद हुआ। कमेटी के पदाधिकारी देश के विभिन्न राज्यों से मनोनित किए जाते हैं उनका अजमेर से कोई लेना देना नहीं होता। ऐसे लोग खादिम कौम को लाईसेंस देने की बात करते हैं तो इससे बडा मजाक और क्या हो सकता है।
जहां तक केन्द्र सरकार की बात है तो विभाजन के बाद बने दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट 1955 के अन्तर्गत बनी दरगाह कमेटी ने केन्द्र में हर सरकार के दौर में खादिमों को लाईसेंस दिए जाने की बात की लेकिन मामला ठंडे बस्ते में जाता रहा। दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट 1955 में खादिमों को लाईसेंस दिए जाने की बात लिखी है। जब भी दरगाह कमेटी ने खादिमों को लाईसेंस दिए जाने का निर्णय लिया तब तब खादिम समुदाय ने इसका विरोध किया। खादिमों की संस्थाएं अंजुमन सैयदजादगान और अंजुमन शेखजादगान के पदाधिकारियों ने खादिमों को लाईसेंस दिए जाने को गैर जरुरी बताया। नब्बे के दशक में दरगाह दीवान, नाजिम और खादिमों के बीच दरगाह परिसर में कभी नजराने को लेकर तो कभी अतिक्रमण को लेकर तो कभी व्यवस्थाओं को लेकर खूब विवाद हुए तो अजमेर की तब की मीडिया ने खादिमों के खिलाफ खूब लेख और समाचार प्रकाशित किए जिससे देशभर में खादिमों की छवि बदमाशों के गिरोह के रुप में बना दी गई। तब भी दरगाह कमेटी खादिमों को लाईसेंस देने की बात उठाती रही।
दरअसल दरगाह कमेटी का खादिमों को लाईसेंस दिए जाने का उददेश्य दरगाह में खादिमों की बढती संख्या, अनेक खादिमों द्वारा जायरीनों के साथ दुर्व्यवहार की बढती हरकतों और नाबालिग खादिमों को दरगाह में आने से रोकना है ताकि जिन खादिमों के पास लाईसेंस होगा वहीं दरगाह में रहेगें जिससे व्यवस्थाओं को नियंत्रित किया जा सकेगा। नब्बे के दशक तक खादिमों की जिन संस्थाओं को जिला प्रशासन अपनी बैठकों तक में नहीं बुलाता था, आज वो संस्थाएं ताकतवर बन चुकी हैं और जिला प्रशासन तो क्या, राज्य सरकार या केन्द्र सरकार जब भी दरगाह से संबंधित कोई बैठक करती है तो खादिमों की दोनों संस्थाओं के प्रतिनिधी शामिल होते हैं। खादिम वर्ग में बदलाव सन् दो हजार के बाद आया जब अंजुमन सैयदजादगान के चुनाव में शिक्षित , युवा और तेज तर्रार सैयद सरवर चिश्ती, बुजुर्ग सैयद गुलाम किबरिया, सैयद कमालुददीन चिश्ती जैसे सुलझे हुए खादिम जीते और सूझबूझ से अपने स्तर पर नियम बनाकर युवा खादिमों को नियंत्रित किया, मीडिया की नकरात्मक रिर्पोटिंग को बदला, मीडिया के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस का सिलसिला शुरु किया जिससे देश में खादिमों का सकरात्मक पक्ष सामने आया और दरगाह परिसर के हालात भी अच्छे बने। हालांकि अंजुमन सैयदजादगान के पूर्व सचिव सैयद वाहिद हुसैन अंगाराशाह भी मीडिया फ्रेण्डली रहे लेकिन खादिमों के प्रति कूप्रचार को नहीं रोक पाए। आज खादिम वर्ग के प्रति सकरात्मक रिर्पोटिंग को पच्चीस साल हो गए है, खादिम वर्ग भी साधन संपन्न और देश की राजनीति में महत्वपूर्ण हो गया है, आज भी सैयद सरवर चिश्ती अंजुमन के सचिव है गुलाम किबरिया अध्यक्ष हैं इनकी आवाज देश विदेश में सुनी जाती है। दरगाह दीवान के साथ बरसों का विवाद खत्म हो गया है जो कभी अजमेर की मीडिया का चर्चित विषय होता था। दरगाह में प्रतिदिन देश विदेश से आने वाले जायरीन की भीड बढते बढते लगभग दस हजार तक जा पहुंची है ऐसे माहौल में खादिमों को दरगाह परिसर में नियंत्रित करने के लिए लाईसेंस देने का निर्णय करना ना सिर्फ खादिमों को नाराज करना होगा बल्कि हजारों की संख्या में उन जायरीनों को भी नाराज करना होगा जो खादिमों को अपना धर्मगुरु मान बैठी है। राजनीति में एक एक वोट की कीमत जानने वाली केन्द्र व राज्य सरकार के लिए भी यह राजनीतिक रुप से जोखिम भरा तो है।
– मुजफ्फर अली
सीनीयर जर्नलिस्ट, अजमेर , feedback – muzaffaralinewseditor@gmail.com