*–अमित टण्डन*
किसी भी समाज में शायद शुरू से ही मानव प्रवृत्ति रही है, कि “सफलता, ऊंचा ओहदा, राष्ट्रीय या अंतराष्ट्रीय ख्याति” इन्सान में “स्व” की भावना को इतना मजबूती से दिमाग में कस कर बांध देती है, कि व्यक्ति खुद के ख़यालों, फलसफों और सोचों को “स्थापित सिद्धांतों” के रूप में समाज पर लादने का प्रयास करता है। उसे लगता है कि उसकी कहन श्रेष्ठतम है। हमारे एक मित्र से एक सामूहिक चर्चा के दौरान “पीएचडी” के ‘फुल-फॉर्म’ और उसके अर्थ पर चर्चा हो रही थी। उन्होंने बताया कि “डॉक्टरेट ऑफ फिलॉसफी”। यानी किसी भी विषय के एक टॉपिक पर किसी रिसर्चर द्वारा अपनी फिलॉसफी गढ़ना, उसके आधार पर उस टॉपिक पर अपना एक सिद्धान्त प्रतिपादित करना, या अपना एक नज़रिया अपनी रिसर्च रिपोर्ट में प्रस्तुत करना। सफलतापूर्वक शोध करके व्यक्ति को “पीएचडी” होल्डर घोषित किया जाता है।
मगर क्या जरूरी है कि किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त, उसके द्वारा सृजित परिभाषा, उसके द्वारा घोषित विचार तथा दिया गया फलसफा सही ही हो, या सर्वमान्य ही हो? सही हो सकता है मगर सर्वमान्य नहीं। क्योंकि दूसरे किसी पहलू से उसी टॉपिक पर एक अलग नज़रिया भी सही लग सकता है। वो सिर्फ एक नज़रिया हो सकता है, मगर स्थापित थ्योरी नहीं हो सकती।
ये नज़रिया ऐसा ही है जैसे “गिलास आधा भरा है या आधा खाली”।

अभी पिछले दिनों एक सम्मेलन में कुछ दिग्गज ख्यातनाम विद्वानों से एक चर्चा हुई। किसी सज्जन की “बुक लॉन्च कार्यक्रम” को “पुस्तक का अनावरण” अथवा “किताब का विमोचन” कहने पर राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान-प्राप्त दो महान विद्वानों ने आपत्ति दर्ज करते हुए कहा कि “अनावरण और विमोचन” दोनों गलत हैं, हमें इसे “लोकार्पण” कहना चाहिए। एक सज्जन ने तो सिर्फ अपत्ति जताई और कोई कारण या तर्क नहीं दिया। समय सीमा भी थी और उनकी तकरीर का उस वक़्त वो विषय भी नहीं था। दूसरे सज्जन की तकरीर का विषय भी हालांकि वो नहीं था, मगर अपने समकक्ष राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साथी की बात का समर्थन करते हुए उन्होंने इतना जरूर कहा कि “अनावरण” में किसी को “नंगा” कर देने का भाव प्रतीत होता है।
यह उनका अपना नज़रिया है, अपनी सोच है। उनकी विचारधारा को मानने वाले हर तबके/श्रेणी के लोग इस बात से इत्तेफाक रख सकते होंगे। मगर उनका नज़रिया स्थापित सिद्धान्त नहीं है। क्यूँकि “अनावरण” या “विमोचन” को “नंगा कर देने” के अर्थ में लेने का उनका तर्क कुछ प्रतिशत लोग मानेंगे, तो कुछ प्रतिशत लोग कत्तई इस ख़याल को स्वीकार नहीं करेंगे।
*अनावरण करना निर्वस्त्र करना नहीं!*
—————————-
दरअसल “अनावरण या विमोचन” करना का अर्थ “निर्वस्त्र करना या चीरहरण करना” बिल्कुल नहीं है।
ये मेरा नज़रिया है, आप इसे मानने को बाध्य नहीं हैं)। जब किसी महापुरुष की आदमकद मूर्ति से पर्दा हटाया जाता है, तो क्या हम उसे सार्वजनिक रूप से नंगा कर रहे हैं?
जब ऑनलाइन सामान मंगाते हैं और उसके रैपर फाड़ कर सामग्री बाहर निकालते हैं, तो क्या हम उसे नंगा कर रहे हैं?
जब शादी, जन्मदिन आदि पर शगुन के रुपए का लिफाफा मिलता है और फाड़ कर अंदर से मुद्रा निकालते हैं, तो क्या हमने मुद्रा को नंगा किया?
जब हमें लाल, नीले, हरे चमकीले कागजों में लिपटे गिफ्ट/तोहफे मिलते हैं, और हम उन रैपर्स को फाड़ कर गिफ्ट बाहर निकालते हैं, तो क्या गिफ्ट नंगा हो गया?
मेरी समझ से अनावरण या विमोचन एक ऑब्जेक्ट का होता है। एक लेखक, शायर, कवि, साहित्यकार जब अपनी “बुक लॉन्च” करता है, और एक सार्वजनिक समारोह में मंचासीन विद्वान मेहमान उसका कागज “बेदर्दी से” फाड़ कर उस किताब को “गिफ्ट रैपर” से बाहर निकालते हैं, तो क्या किताब नंगी हो गई?
और यदि विद्वानों को ऐसा लगता है कि वे किताब के ऊपर लिपटे रंगीन कागज को “चीरहरण” की तरह नोच रहे हैं, और यह एक अशोभनीय बात है, तो फिर इस तरह बुक लॉन्च क्यों?
सिर्फ “अनावरण या विमोचन” को “लोकार्पण” कह देने भर से उस किताब की नग्नता अश्लील से श्लील हो जाएगी? गोया के मटन को आलू कह देने से वह शाकाहारी हो गया।
फिर अर्ज़ करता हूँ कि मेरे नज़रिए से इत्तेफ़ाक मत रखना। मगर क्या यह सही नहीं लगता कि “अनावरण या विमोचन” एक ऑब्जेक्ट का होता है, यानी वस्तु का जो निर्जीव है। और पुस्तक एक ऑब्जेक्ट है, उसके ऊपर लिपटे रंगीन/चमकीले कागज को खोल कर अथवा फाड़ कर पुस्तक की झलक सबके सामने लाना तो अनावरण व विमोचन ही हुआ।
*लोकार्पण कुछ अलग है*
——————————
तो फिर लोकापर्ण क्या हुआ? लोक यानी लोग, जनता, समाज। अर्पण मतलब उन्हें सौंपना या समर्पित करना। क्या लेखक एक निर्जीव पुस्तक “लोकार्पित” करके लोगों को अर्पित कर रहा है। मेरे ख़याल से पुस्तक तो अनावरित ही होती है, क्योंकि एक निर्जीव ऑब्जेक्ट है। क्योंकि जान तो उन जज़्बातों, ख़यालों, फलसफों और उन सोचों में है, जो गज़लें-कविताएं किसी किताब में कवि-शायर ने दिल की गहाइयों से दर्ज की हैं। कवि या शायर अपने वही “जज़्बात, खयाल, फलसफे और सोचें” लोकार्पित करता है। किताब तो सिर्फ एक माध्यम है या एक बंडल है। कवि या शायर सभी लोगों को अलग-अलग पुर्जों में लिख-लिख कर अपनी 50, 60, 70 या 100 रचनाएं बांट नहीं सकता। ना एक-एक ग़ज़ल का अलग-अलग पुर्जा बाजारों में बेचा जा सकता है। इसलिये उन्हें इकट्ठा करके एक किताब की शक्ल दी जाती है। उस किताब के ऊपर चढ़े आवरण को हटा कर उसमें समाहित गज़लों-कविताओं की शक्ल में रचे गए जज़्बात, खयाल, फलसफे और सोच लोगों को अर्पित किये जाते हैं।
यह एक भाववाचक व्याख्या है जो मैंने रखने का प्रयास किया। यदि शाब्दिक अर्थ पर भी जाएं तो “अनावरण” का अर्थ है किसी छिपी हुई वस्तु या सार्वजनिक कृति (जैसे मूर्ति, भवन, या पुस्तक) पर पड़े हुए आवरण या परदे को हटाना, जिससे वह सभी के लिए दृश्य या दर्शनीय हो जाए। यह एक सार्वजनिक समारोह भी होता है जिसमें किसी व्यक्ति की तस्वीर या मूर्ति पर से पर्दा हटाकर उसे सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत किया जाता है, जिसे उद्घाटन या लोकार्पण “भी” कहते हैं। *गौरतलब है कि “लोकार्पण भी कहते हैं” ना कि सिर्फ “लोकार्पण ही कहते हैं”।*
इसी तरह विमोचन का अर्थ है किसी वस्तु या व्यक्ति को बंधन से मुक्त करना, छोड़ना, या आज़ादी देना। इसमें किसी चीज़ को किसी नियंत्रण या पकड़ से अलग करना भी शामिल है, जैसे धनुष से बाण छोड़ना या गाड़ी से बैल खोलना। इसके अलावा, पुस्तक या फिल्म को जनता के सामने प्रस्तुत करने के कार्य को भी ‘विमोचन’ कहा जाता है।
शाब्दिक अर्थ में भी कहीं अनावरण या विमोचन का अर्थ “नंगा करना” नहीं है। अतः यह तर्क पूर्णतया अमान्य है कि किताब का “अनावरण या विमोचन” कहना किसी भी तरह अश्लीलता, असभ्यता अथवा अपमान का बोध करा रहा हो।
*भोग का अर्पण भी तो भावनात्मक*
————————-
पूजा के बाद बने हुए प्रसाद अथवा भोजन सामग्री का भोग लगाना, और यह कहना – ‘श्री कृष्णाय अर्पण’…। श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मण भोज से पहले गाय, कुत्ते और कौवे का गास निकालना। हमने भगवान को भोग लगा कर उन्हें भोजन सामग्री समर्पित अथवा अर्पित नहीं की, केवल अपनी भावना व आस्था अर्पित की। भगवान ने वो भोज्य सामग्री आकर खाई नहीं। हमने अपनी आस्था से सिर्फ माना कि ईश्वर ने उसे ग्रहण कर लिया। जबकि भोजन सामग्री (पूड़ी, सब्जी, पकौड़ी, खीर) एक ऑब्जेक्ट है, भगवान के समक्ष घन्टी बजाने के बाद या तो स्वयं हम खा जाते हैं या बाहर कहीं चींटी व गाय आदि के आगे रख देते हैं। श्राद्ध पक्ष में भी गाय, कुत्ते व कौवे का गास सिर्फ आस्था और भावना का अर्पण है। पशुओं के ग्रहण कर लेने भर से आत्म संतुष्टि मिल जाती है कि मृत पूर्वजों को तृप्ति हो गई। इसी तरह पुस्तक के “अनावरण या विमोचन” में भी उसके अंदर छपी रचनाओं के रूप में लेखक की भावनाओं, ख़यालों, फलसफों और सोचों का अर्पण है। किताब का क्या है, कागज-गत्ते का बना एक निर्जीव ऑब्जेक्ट है। कुछ दिन बाद गल जाएगा, फट जाएगा, दीमकें चाट जाएंगी, नष्ट हो जाएगा। मगर लोकार्पित जज़्बात, ख़याल, फलसफे और सोच लंबे समय तक या संभवतया ताउम्र ज़हनों में रहँगी।
इन सब बातों या अपना पक्ष रखने का मेरा मक़सद यह बिल्कुल नहीं कि मैं खुद को ज्ञाता या विद्वान बता रहा हूँ। उन दिग्गजों के जितना ज्ञान अर्जन कर उनके जितना ऊंचा मुकाम पाने के लिए मुझे न जाने कितने जन्म लेने पड़ेंगे। मगर एक जिज्ञासु व्यक्ति होने और ज्ञान-पिपासु आम आदमी होने के नाते मुझे बात रखने का हक़ तो है ही।
*एक मतला और दो शेर कभी कहे थे मैंने*
—————————-
ऐ वाईज़ तेरे मशवरों पे मैंने सोचा बहुत था!
पर सच कहूं, तेरी बातों में यार धोखा बहुत था..!!
ये कर, वो ना कर, ऐसा कर, यूँ ना कर!
नुक़्ताचीं का तुझे भी अपने गुमां बहुत था..!!
एक ओहदा ही बड़ा था, वगरना मुझसा ही था तू भी!
कुर्सी की ऊंचाई भर से मगर फासला बहुत था.!!
1 thought on “*पर सच कहूं, तेरी बातों में यार धोखा बहुत था..!!*”
एक मुद्दत के बाद इतनी अच्छी व्याख्या पढ़ने को मिलीअमित जी आप जितने सहज दिखते हैं, उससे कहीं ज्यादा ज्वार खुद में समेटे हुई हैं। आपकी लेखनी को कोटिश साधुवाद।