(5 सितम्बर शिक्षक दिवस के लिए विशेष)
यह पचास के दशक की शुरूआत से कुछ पहले यानि सन 1948 के आसपास, जब देश की आजादी के बाद साम्प्रदायिक दंगों की आग कम पड गई थी, की बात हैं. उस समय अंदरूनी अजमेर में अधिकांश पाठशालाएं Single Handed यानि एकल गुरूजी द्वारा संचालित होती थी. मसलन कडक्का चौक-नयाबाजार में पंडित जगन्नाथजी की स्कूल (पंडितजी बहुत ही रौबीली आवाज में पढाया करते थे. कभी कभी बच्चें इनकी आवाज से सहम भी जाते थे लेकिन यह स्वयं बहुत ही नेकदिल इंसान थे). उधर खजाने के नोहरे में पंडित प्रहलादजी की स्कूल थी(पंडितजी सरवाड के रहनेवाले थे. यह स्कूल में हर समय डंडा हाथ में रखते थे इसलिए इनकी स्कूल डंडेवाली स्कूल के नाम से जानी जाती थी. यह बहुत अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे). इनके बारें में मशहूर था कि जो इनके हाथ की मार खा लेता है वह आगे चलकर बहुत उन्नति करेगा. मुझें यह सौभाग्य प्राप्त होचुका हैं. भविष्य की ईश्वर जानें.
सरावगी मौहल्ले में श्री उमरावमलजी जैन की पाठशाला(यह स्कूल पहाडोंवाली स्कूल के नाम से मशहूर थी. इसका मतलब यह नही कि यह स्कूल किसी पहाड पर बसी हुई थी. थी तो सरावगी मौहल्लें में ही लेकिन यहां बच्चों को रोजाना, सामूहिक रूप से, जोर-जोर से बोलकर पहाडें रटवाये जाते थे, जिसकी गूंज पास-पडौस के मकानों तक पहुंचती थी फलस्वरूप सन 1951 और 1961 में हुई जनगणना में इसका प्रभाव देखने में आया जब वहां रहनेवाली गृहणियां भी बिना स्कूल गए अनायास ही शिक्षितों की श्रेणी में आगई. इस स्कूल की एक और विशेषता थी कि देर से आनेवालें को तो दंड दिया ही जाता था जो स्कूल नही आता उसे पांच बच्चें घर भेज कर लाया जाता. चार टांगाटौली (दोनों हाथ, दोनों पैर झुलाते हुए) के लिए और पांचवा उनका रिंग मास्टर. इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में मां-बाप का कोई हस्तक्षेप नही.

इसके अतिरिक्त भंडारा गली में लपट्या पंडितजी की स्कूल(मास्साब का यह नाम कैसे और क्योंकर पडा यह आजतक कोई नही जान पाया. अब कोई सीबीआई या ईडी ही इस विषय में कुछ जांच करलें तो और बात हैं. उसी ईलाके में श्री जयनायणजी की स्कूल भी थी. यह स्कूल मास्साब द्वारा बच्चों को चूट्या भरने (नौचना) का दंड दिये जाने से चूट्यावाली स्कूल के नाम से मशहूर थी.
उपरोक्त स्कूलों के अध्यापकों का समाज में बडा सम्मान था और हर गणेश-चतुर्थी (चतडाचौथ) को प्रत्येक विद्यार्थी के घर में इनका सम्मान किया जाता था.
इन स्कूलों में कभी कभी ऐसा भी होता था कि कोई धनवान परिवार अपने बच्चें का दाखिला करवाने स्कूल में आता तो मास्साब से कह देता कि इसे सीधे सीधे कोई दंड मत देना. अगर इसे दंड देना हो तो इसके पडौस में बैठने वाले को डांट-डपट देना ताकि उस डर (पुलीस टैरर) से यह भी सहम जायें. एक पाठशाला अग्रवाल समाज की भी कडक्का चौक में थी. जहां से पास होकर विद्यार्थी, अगली क्लास के लिए, दोपहर लगनेवाली अग्रवाल प्रायमरी स्कूल में जाया करते थे जिसके हैड मास्टर श्री होरीलाल जी और अन्य अध्यापकों में सर्वश्री गंगाशरण माथुर(ड्राइंग), रामबाबू, बालकिशन गर्ग, बालक(कवि) आदि भी थे.
उपरोक्त सभी स्कूलें सिर्फ लडकों के लिए थी. उस समय सहशिक्षा का दूर दूर तक कही पता नही था. शिक्षा का माध्यम हिन्दी था और इंगलिश छट्ठी क्लास से पढाई जाती थी. सभी स्कूलों में नाममात्र की फीस हुआ करती थी और कोई यूनीफार्म भी नही होती थी. इन सब बातों से घर-परिवार पर प्रारम्भिक शिक्षा का बोझ बहुत कम था. किताबें एक-दो ही होती थी और लिखने के लिए पत्थर या लोहे की स्लेट होती थी जिस पर खडिया-पेंसिल से लिखा जाता था और लिखे हुए को मिटाने के लिए गीले कपडें का टुकडा काम में लिया जाता था. गीली स्लेट को सुखाने के लिए सुख-सुख पट्टी, चंदन घट्टी. राजो आयो मैल सुखायों. गीत गाया जाता था स्कूलों में मां-बाप का दखल नही के बराबर था. प्रायवेट कोचिंग के बारे में उस समय किसी ने सुना भी नही था.कहने का तात्पर्य यह कि शिक्षा का व्यवसायी करण नही हुआ था