जहां घर में एक मर्द के लिए दो औरतों के बीच के फासले को पाट पाना मुश्किल हो जाता है, वहीँ वह अकेला लगभग एक सौ से ज़ियादा औरतों को, जो उम्र में उसके लिहाज से बड़ी, बड़ी ही नहीं बहुत बड़ी, उसकी दादी नानी की उम्र की सुबह 9 से शाम के 5:00 बजे तक उसके इर्द-गिर्द मंडराती रहती हैं, जैसे भंवरे एक खिले हुए फूल के इर्द-गिर्द मंडराते हैं.
वह है भी ऐसा,एक खिले हुए चेहरे का मलिक, सुबह की ताज़गी लिए एक सुमन जैसा, जो “निरवाना सीनियर सेण्टर” के प्रांगण में अपनी कार्य व्यवस्था को संभाले हुए टहलता रहता है, कभी किसी एक टेबल के पास वहां के सदस्यों से गुफ्तगू करते हुए, कभी दूसरे टेबल पर किसी काकी से कड़कती हुई आवाज में हंसी -ठिठौली करते हुए, कभी तीसरे टेबल पर जाकर ढाई बजे के आसपास थेरेपी के लिए जाने के लिए तैयार रहने का पैगाम देते हुए सभी के बीच से गुज़रता जाता है. ऐसे एक नहीं अनेक कार्यों में उसका दखल रहता है.
इसी दौर से गुजरते हुए न जाने वह कितने सालों से यहां कार्यरत है, एक सेनियर लीड फॉर ट्रांसपोर्टेशन के तौर. सभी सदस्यों को उनके घरों से लिवा लाना और शाम 5:30 उन्हें अनेक ठिकानों तक पहुँचाना उसकी जवाबदारी है. जैसे जंग में कमांडर के इशारों पर सिग्नल पहचानते हुए कमांडो कार्य करते हैं, वैसे ही जिगर भी अपने अनुभव और तजुर्बों के बल पर अटल विश्वास के साथ अनेक मोटरों व् बसों की बागडोर अपने सक्षम टीम के साथ संभालता है.
देखा जाए तो वह भी हर नौका का खिवैया है-एक केवट जो इस पार से उस पार के पहुँचाने की हर राह की पहचान रखता है.
बस मैं उसे तीन बरस से देखती आ रही हूँ और उम्र दराज़ के नज़रिये से उसे देखते हुए ऐसी कार्य क्षमता की मुरीद सी हो रही हूँ. औरतों को संभालना, उनकी बातें सुनना, उनकी फरमाइश या दावेदारी पर उन्हें मन चाही जगह भेजना जितना आसां लगता है उतना ही कठिन भी. और सबों की मांग पर पूरा उतरना …उफ़…एक सब्र का दरिया पार करने जैसा है.
कल ही की बात है: मुझे शाम के वक्त लौटते समय कुछ दूरी पर खड़ा देखकर वहीं से आवाज़ देकर कहने लगा ”यह आपकी बुराई कर रही है”. वह उन औरतों के झुंड के साथ खड़ा था जिनके साथ मैं बस में घर की ओर जाती हूँ.
मैंने मुस्कुराते हुए उस से नहीं, खुद से कहा “गनीमत वह मेरी बुराई मेरे सामने कर रही है, पीठ पीछे नहीं.”
जिगर ने फिर आवाज दी: “देवी आंटी आप मुस्कुरा रही हैं, ये आपकी बुराई कर रही हैं. उसने उन औरतों की ओर इशारा करते हुए कहा. पर मैं अपने स्थान पर अड़ी रही, खड़ी रही, उनकी ओर देखते हुए मुस्कराती रही.
मुझे अपनी सोच व् समझ पर अडिग रहने में सुकून मिलता है.
यह कल शाम 5:30 बजे की बात है और आज याद की गुफा से बाहर निकलते ही सुबह की उजली रोशनी में अब 8:30 बजे यह विवरण लिखते हुए मेरे होठों पर एक स्नेहमयी मुस्कुराहट सज रही है उस किरदार के लिए जो गोपियों के बीच एक कान्हा के रूप में फिर थिर तन-मन से अपने कर्तव्य की डगर पर अटल विश्वास के साथ चला आ रहा है.
देवी नागरानी