इतिहास गवाह है कि मुगल सम्राट अकबर के द्वारा दिये गये झूठे आश्वासन, उच्चस्थान, पदाधिकार आदि प्रलोभनों और भय से वशीभूत होकर कई राजपतू राजाओं ने सम्राट अकबर सत्ता के सामने नतमस्तक होकर उनकी अधीनता मंजूर कर ली थी जिससे यह स्थापित हो गया कि अधिकतर राजपूत अपना गौरव खो चुके थे ऐसा प्रतीत होता था कि मानों पूरा राजस्थान ही अपना आत्मगौरव खो कर अकबर की गुलामी स्वीकार कर ली थी | निराशा के ऐसे कठिन समय में मेवाड़ के महाराणा प्रताप का मातृभूमी की रक्षा के लिए राजनैतिक क्षेत्र में प्रवेश हुआ। निसंदेह अकबर हिन्दुओं के जयचंदों की मदद बल से ही हिन्दू राजाओं को अपने अधीन करता था। तत्कालीन हिंदू राजाओं की कायरता एवं मूर्खता का अकबर ने भरपूर लाभ उठाया। हिन्दू स्वाभिमान को कुचलने के लिए अकबर ने सभी प्रकार के उपाय और लगभग सभी राजपूत राजाओं को अपने आधीन करने में सफल रहा। कई राजपूत राजाओं ने मान सम्मान को ताक पर रखकर अपनी बेटियों को भी अकबर के दरबार में पहुंचा दिया। यह भारतीय इतिहास का सबसे कलंकित अध्याय है।
किन्तु इसके विपरीत मेवाड़, बूंदी तथा सिरोही वंश के राजा अंत तक अकबर से संघर्ष करते रहे। मेवाड़ के राणा उदयसिंह का स्वतंत्र रहना अकबर के लिए असहनीय था। चूँकि मेवाड़ के राजा उदय सिंह विलासी प्रवृत्ति के थे इसलिए अकबर ने मेवाड़ विजय के लिए भारी भरकम सेना के साथ मेवाड़ पर हमला बोल दिया। दुर्बल उदय सिंह का मनोबल बहुत ही गिरा हुआ था इसलिए वह मैदान छोड़ कर भाग गया।अरावली की पहाड़ियों पर छुप गया। वहीँ पर उसने उदयपुर नामक नगर बसाया और राजधानी भी बनायीं। उदय सिंह ने अपनी मृत्यु के पूर्व अपनी कनिष्ठ पत्नी के पुत्र जगमल्ल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया लेकिन उसके अन्य सरदारों ने जगमल्ल के खिलाफ विद्रोह कर दिया और महाराणा प्रताप को अपना राजा घोषित कर दिया। राजा घोषित होते ही प्रताप को विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ा।
राणा प्रताप के भाई शक्ति सिंह और जगमाल मुगलों से मिल गये। शत्रुओं का मुकाबला करने के लिए मजबूत सैन्य शक्ति की महती आवश्यकता थी। राणा प्रताप सदैव इसी चिंता में लगे रहते थे कि अपनी मातृभूमि को मुगलों से किस प्रकार मुक्त कराया जाये। परम पवित्र चितौड़ का विनाश उनके लिए बेहद असहनीय था। एक दिन राणा प्रताप ने दरबार लगाकर अपनी ओजस्वी वाणी में सरदारों का स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए आह्वान करके उनमें नया जोश भरा तथा युद्ध की प्रेरणा प्रदान दी।
एक बार शीतल भाट उनके दरबार आ पहुंचा और शौर्य तथा वीरता की कविताएं सुनायीं। शीतल भाट की ओजस्वी वीरता का संदेश देने वाली कविता सुनकर महाराणा ने अपनी पगडी़ उतारकर भाट को इनाम में दे दी।राजपूतों के लिए उसकी पगड़ी आन नान धान
महाराणा प्रताप ने अचानक उस पर धावा बोल दिया। अचानक हमले से सभी मुगल सैनिक भाग खडे़ हुये। इसी प्रकार महाराणा ने कई अन्य किले भी अपने आधीन कर लिये। बाद में उदयपुर भी राणाप्रताप के कब्जे में आ गया। इस प्रकार महाराणा प्रताप एक के बाद एक किले जीतते चले गये। महाराणा प्रताप की वीरता की बातें सुनकर अकबर शांत रह गया और उसने अपना सारा ध्यान दक्षिण की ओर लगा दिया। लगातार युद्ध करते रहने और संकटों को झेलने के कारण महाराणा का शरीर लगातार कमज़ोर होता जा रहा था। 19 जनवरी 1597 के दिन अंतिम सांस ली। भारतीय इतिहास के पुराण पुरूष महाराण प्रताप सिंह स्वाधीनता की रक्षा करने वाले मेवाड़ के स्वनामधन्य वीरों की मणिमाला मे सुर्कीतिमान हैं।
अकबर को महान कहना चाहिए या फिर महाराणा प्रताप को? यह सवाल पिछले कई वर्षो से भारतीयों के मस्तिष्क में एक अनसुलझी पहेली बना हुआ है | यों तो अकबर और प्रताप दोनों अपनी अपनी जगह महान थे | दोनों के कारण भारत को फायदा हुआ | अकबर और प्रताप से हम आज भी बहुत कुछ सीख सकते हैं, बशर्ते हम शांत मन से चिंतन करें कि उस समय हुआ क्या था ? और उस क्या हालत थे ?| अगर आप भारत को एक सूत्र में बांधने के काम को महान मानते हैं तो अकबर द्वारा की गई कोशिशे काबिले तारीफ थी वहीं अल्प साधनों किन्तु अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता और गौरव के लिये अद्भुत वीरता ओर प्राण न्योछावर करने के मजबूत इरादों के साथ आक्रमणकारी का सामना करते हुए आक्रान्ता को पीछे धकेलने का साहस मेवाड़ रत्न राणाप्रताप ने ही किया इसलिये राणाप्रताप भी महान कहलाने के अधिकारी हैं | अकबर और प्रताप, दोनों के पीछे कई वफ़ादार वीर थे | अकबर को जहाँ एक तरफ अनेकों राजपूत राजाओं का समर्थन मिला हुआ था तो वहीं प्रताप को गद्दी पर बैठाने में उनके राज्य के लोगों का हाथ था जिनमें मुस्लिम और राजपूत योद्धा शामिल थे वरना, परम्परा के मुताबिक़ तो प्रताप के छोटे भाई जगमल्ल को गद्दी मिलनी थी | अकबर जहाँ मेवाड़ की वीर भूमी का हमलावर था और मेवाड़ पर हमला करके उस पर अधिकार जमाना चाह रहा था वहीं राणा प्रताप मेवाड़ के जननायक ओर लोकप्रिय शासक थे |
महाराणा प्रताप मेवाड़ की अस्मिता के प्रतिक तो हैं ही उनका नाम देशभक्ति, स्वाभिमान और दृढ प्रण के लिये सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने जीवन पर्यन्त मेवाड़ की आजादी एवं अस्मिता के लिए मुगल बादशाह अकबरके साथ साथ निरंतर संघर्ष किया एवं कभी भी अकबर की आधीनता स्वीकार नहीं की। अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिये एवं दिल्ली सल्तनत की अधीनता स्वीकार करने हेतु कई दूतों को भेजा जिनमें प्रमुख जलाल खान कोरची (सितम्बर 1572), मानसिंह (1573), भगवान दास (सितम्बर–अक्टूबर 1573) एवं टोडरमल (दिसम्बर 1573) मुख्य है |
महाराणा प्रताप का जन्म 15 मई 1540 यानि ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया, विक्रम संवत 1597 को कुम्भलगढ़ में महाराणा उदयसिंह एवं माता राणी जीवत कँवर के यहाँ हुआ था | महाराणा प्रताप की माता का नाम जैवन्ताबाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुंदा में हुआ। महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल 11 शादियां की थी | कहा जाता है कि उन्होंने ये सभी शादियां राजनीतिक कारणों से की थी |
अकबर कूटनीती का जानकार था इसलिए उसने अपनी दो लाख सेना का नेतृत्व सलीम व मान सिंह को सौंपा। यह युद्ध बहुत ही भयंकर था। महाराणा प्रताप ने पूरी सजगता वीरता के साथ युद्ध लड़ा लेकिन यह निर्णायक नहीं रहा।
हल्दी घाटी की लड़ाई (18 जून 1576 ) हल्दीघाटी का कण-कण आज भी प्रताप की सेना के शौर्य,पराक्रम और बलिदानों की कहानी कहता है। 18 जून 1576 का भारत के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है क्योंकि इसी दिन प्रसिद्ध हल्दीघाटी की लड़ाई में लगभग बाईस हजार आजादी के मतवाले राजपूतों के साथ राणा प्रताप ने अकबर की मुगल सेना के सेनापति राजा मानसिंह एवं आसफ खाँ की अस्सी हजार सैनिकों की विशालकाय सेना का वीरता पूर्वक सामना किया था| हल्दीघाटी की लड़ाई मात्र एक दिन चला परन्तु इसमें 14000 राजपूत सैनिकों को अपने प्राणों की आहुती देनी पड़ी । हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लडने वालों के अंदर मुस्लिम सरदार हकीमखां सूरी भी थे | मेवाड़ के आदिवासी भीलों ने हल्दी घाटी में अकबर की फौज को अपने तीरो से रौंद डाला था सभी भील महाराणा प्रताप को अपना बेटा मानते थे और राणा जी बिना भेद भाव के उन के साथ रहते थे|आज भी मेवाड़ के राजचिन्ह पर एक तरफ राजपूत है तो दूसरी तरफ भील|शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को उनके विद्र्ही भाई शक्ति सिंह ने बचाया,किन्तु इस युद्ध में राणाप्रताप के प्रिय घोड़ेचेतककी भी मृत्यु हो गई।चित्तौड़ की हल्दीघाटी में चेतक की समाधि बनी हुई है। चेतक का अंतिम संस्कार महाराणा प्रताप और उनके भाई शक्ति सिंह ने किया था। महाराणा प्रताप के भाले का और कवच का वजन 80 किलो था। महाराणा प्रताप की तलवार कवच आदि सामान उदयपुर राज घराने के संग्रहालय में रखे हुए हैं। मेवाड़ राजघराने के वारिस को एकलिंग जी भगवान का दीवान माना जाता है।
दानवीर भामाशाह का त्याग युद्धभूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये किन्तु वो सफल नहीं हो सका। निरंतर सघर्ष के कारण महाराणा की आर्थिक हालत दिन-प्रतिदिन कमजोर होती गई एवं एक बार तो वो विचलित भी हो गये |विपत्तियों के इन क्षणों में भामाशाह ने अपने जीवन की सारी कमाई को राणाप्रताप को अर्पित कर मेवाड़ की रक्षा हेतु लड़ाई चालू रखने का निवेदन किया | भामाशाह की यह आर्थिक सहायता लगभग 25000 राजपूतों की सेना के 12 साल तक का वेतन और निर्वाह के लिए पर्याप्त थी|अपनी दानशीलता के लिए भामाशाह भी इतिहास पुरुष बने इसीलिये आज भी कई राज्यों में उनके नाम से जन कल्याणकारी योजनायें चला रहें हैं|
झाला सरदार मन्नाजी का बलिदान हल्दीघाटी का युद्ध अत्यन्त घमासान हो गया था। एक समय ऐसा आया जब शहजादा सलीम पर राणा प्रताप स्वयं आक्रमण कर रहे थे,दोनों लहूलुहान हो गये थे,इस द्रश्य को देखकर कर हजारों मुगलसैनिक सलीम की रक्षा करने हेतु उसी तरफ़ बढ़े और राणाप्रताप को चारों तरफ़ से घेर कर उन पर प्रहार करने लगे। राणाप्रताप के सिर परमेवाड़का राजमुकुट लगा हुआ था अत:मुगलों ने मिलकर उन्हीं को निशाना बना लिया था वहीं दुसरी तरफ राणाप्रताप के रणबाकुरें राजपूतसैनिक भी प्रताप को बचाने के लिए अपने प्राण को हथेली पर रख कर संघर्ष कर रहे थे। दुर्भाग्यवश प्रताप संकट में फँसते जा रहे थे। स्थिति की गम्भीरता को भांपते हुए झाला सरदार मन्ना जीने स्वामिभक्ति का एक बेमिसाल आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। झाला सरदार मन्नाजी तेज़ी के साथ युद्ध भूमि में सैनिकों को चीरते हुए आगे बढे और राणा प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर मुगलों से घमासान युद्ध करने लगे।मुगलों ने झाला सरदार मुन्नाजीको ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े इस तरह राणाप्रताप को राष्ट्र युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया। उनका सारा शरीर असंख्य घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्धभूमि से लोटते समय राणाप्रताप मेवाड़ के वीर मन्नाजी को अपने प्राणों की आहुती देते देखा। इस युद्ध में नगण्य संख्या में मोजूद राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुगलों का सामना किया,परन्तु तोपों तथा बंदूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने उनका समूचा परिश्रम निष्फल रहा। इतिहास के पन्नों में झाला सरदार मुन्ना जी का बलिदान स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जायेगा|
आठ हज़ार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये किन्तु वो सफल नहीं हो सका। निरंतर सघर्ष के कारण महाराणा की आर्थिक हालत दिन-प्रतिदिन कमजोर होती गई एवं एक बार तो वो विचलित भी हो गये |विपत्तियों के इन क्षणों में भामाशाह ने अपने जीवन की सारी कमाई को राणाप्रताप को अर्पित कर मेवाड़ की रक्षा हेतु लड़ाई चालू रखने का निवेदन किया | भामाशाह की यह आर्थिक सहायता लगभग 25000 राजपूतों की सेना के 12 साल तक का वेतन और निर्वाह के लिए पर्याप्त थी|अपनी दानशीलता के लिए भामाशाह भी इतिहास पुरुष बने इसीलिये आज भी कई राज्यों में उनके नाम से जन कल्याणकारी योजनायें चला रहें हैं|
22 मई 2023 यानी ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया, विक्रम संवत 2080 को राजस्थान के साथ समूचा देश महाराणा प्रताप की 483 वीं जयंती बना रहा है |
शौर्य पराक्रम आद्ध्भुत वीरता के धनी स्वतन्त्रता के प्रतीक मेवाड़रत्न महाराणा प्रताप के अतद्ध्बुत संसमरण
प्रताप का मानना था कि मेरे लिये मेवाड़ की आजादी और अस्मिता सर्वोपरी इसकी रक्ष के लिये में अपने प्राण की भी आहुति देने को तय्यार हूँ | मान्यताओं के मुताबिक़ अकबर ने राणा को संदेश भिजवाया कि अगर वे मेरे सामने झुक जायें तो वो प्रताप को आधा भारत का राज्य दे देगें, राणा किन्तु राणा ने उत्तर दिया कि “ मर जाऊंगा.खत्म हो जाऊंगा, किन्तु कभी भी मुगलों के सामने सिर नहीं झुकाऊँगां |लोकोक्तियों के मुताबिक बादशाह अकबर ने कहा था कि “अगर राणाप्रताप एवं जयमल मेडतिया जैसे शूरवीर योद्धा मेरी सेना होते तो में जरुर विश्वविजेता बन जाता |
आन बाण स्वाभिमान के पक्के
जब महाराणा प्रताप अकबर से पराजित होकर जंगल-जंगल भटक रहे थे तब एक दिन पांच बार भोजन पकाया गया किन्तु हर उन्हें बार भोजन को छोड़कर भागना पड़ा | एक बार प्रताप की पत्नी और उनकी पुत्रवधू ने घास के बीजों को पीसकर कुछ रोटियां बनाई | उनमें से आधी रोटियां बच्चों को दे दी गईं और बची हुई आधी रोटियां दूसरे दिन के लिए रख दी गईं थी | इसी समय प्रताप को अपनी लड़की की चीख सुनाई दी, प्रताप ने देखा कि एक जंगली बिल्ली लड़की के हाथ से उसकी रोटी छीनकर भाग गई और भूख से व्याकुल लड़की के आंसू झर झर टपकने लगे | यह देखकर राणा का दिल बैठ गया किन्तु राणा ने अपना धेर्य नहीं खोया |
हवा से बात करता घोड़ा चेतक
राणा प्रताप का इतिहास प्रसिद्ध घोड़ा चेतक मूल रूप से काठियावाड़ के मूल का अश्व था जो उनको उनके प्राणो से ज्यादा प्रिय था | चेतक की चाल हवा से भी थी | हल्दी घाटी की लड़ाई उसकी एक टी एएक पाँव बुरी तरह से जख्मी हो गई उसके बावजद भ्च्गेत्क ने प्राप् की जान बचाए और वीर गति को प्राप्त हुआ था | आ भी उसकी स्वामी भक्ति को आदर से याद किया जाता है |
समाज में परस्पर भाईचारा के प्रतिक
आज जब समस्त राष्ट्र सांप्रदायिक दंगों की विभाशिका से ग्रस्त है और जमुना गंगा संस्क्रती खतरे में है | वहीं दुसरी तरफ महाराणा प्रताप की नीतियां और कार्यशेली मेवाड़ और राजस्थान में सेकड़ों वर्षों से चली आ रही हिदू मुस्लीम एकता को बताती हैं । पूरे मेवाड़ को सांप्रदायिक सौहार्द में बांधकर रखने वाले प्रताप ने ही हल्दीघाटी के युद्ध में एक मुस्लिम सरदार को हरावथील दस्ते का जिम्मा सौंपा था ।
हिन्दू – मुस्लिम एकता के प्रवर्तक वीर शिरोमणि प्रताप
16 वीं सदी के दौरान विदेशी आक्रमणों का सबसे ज्यादा विरोध मेवाड़ में हुआ । महाराणा प्रताप अपना स्वाधीनता का संघर्ष बाहरी आक्रांताओं के खिलाफ किया | महाराणा प्रताप पर शोध कार्य करने वाले वाले इतिहासकार डॉ चंद्रशेखर शर्मा के अनुसार 16 वीं शताब्दी में पठानों को सत्ता से हटाने के बाद र मुगल सल्तनत सत्ता में आई थी । उस समय में हुमायूं को हराने वाले शेरशाह सूरी के वंशज हाकिम खां युद्ध नीति में पारंगत थे । इस समय में मुगलों ने युद्ध में बारूद का प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया था । मेवाड़ सेनाओं को उस दौरान बारूद और तोप का ज्ञान नहीं था । ऐसे में महाराणा प्रताप ने हाकिम खां की योग्यता को पहचाना । हाकिम खां ने तोपची के रूप में मेवाड़ को अपनी सेवाएं दी । , जबकि परंपरागत रूप से अपने त्याग और बलिदान के लिए प्रसिद्ध यह काम चुंडावतों को मिलना चाहिए था ।
महिलाओं के सम्मान रक्षक राणा प्रताप
डॉ शर्मा के मुताबिक अब्दुल रहीम खान – ए – खाना को अकबर ने हल्दीघाटी युद्ध के बाद अजमेर का सूबेदार बनाया था रहीम खान को एक ही आदेश था महाराणा प्रताप को जिंदा या मुर्दा पकड़ना है । इसके लिए रहीम ने अपना कैंप आबू की तलहटी में लगाया । उस समय प्रताप सुंधा माता की पहाड़ियों में रह रहे थे । प्रताप के बेटे अमर सिंह ने रहीम के कैंप का पता पता लगा करके और उसे युद्ध में परास्त करके उसकी बेगम को अगवा कर प्रताप के पास ले आए। अमर सिंह ने तर्क दिया कि जो मुगल उनके साथ करते हैं वहीं वो उनके बच्चों के साथ करेंगे । जैसे ही ये बात महाराणा प्रताप को पता चली तो वे अमर सिंह पर क्रोधित हो कर अपना आपा खो कर अपने बेटे अमर सिंह को वापस महिला को सम्मान से सुरक्षित उनके कैंप में भिजवाने की व्यवस्था के आदेश दिए । प्रताप ने कहा चाहे वो हिंदू हो या मुस्लिम नारी , स्त्री हमेशा भारतीय संस्कृति में आदरणीय रही है । इसका परिणाम होता है कि रहीम खुद अकबर को जाकर मना कर देता है । रहीम अकबर को कहता है कि प्रताप इतने महान हैं । ऐसे महान व्यक्तित्व के खिलाफ वह संघर्ष नहीं कर सकता । इसके बाद रहीम की अजमेर से सूबेदारी हटा दी गई थी । अब्दुल रहीम ही बाद में श्रेष्ठ कवि रहीम के रूप में पहचाने गए ।
भारतीय कला साहित्य का विकास
जब तक प्रताप की राजधानी जब चावंड हुवा करती थी तब के वक्त को प्रताप के शासन को शांति काल कहा जाता है । उस समय प्रताप ने कला , साहित्य , संस्कृति , खेती को प्रोत्साहित किया मुस्लिम कलाकार निसार ने रागमाला का सुंदर चित्र बनाया जिसे चावंड कलम के नाम से जाना जाता है । निसार के समस्त चित्र भागवत पुराण पर आधारित थे। हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक चावंड कलम ‘ है इसकी विषय वस्तु पौराणिक है ।
आर्थिक फाइनेंशियल मैनेजमेंट के गुरु राणा प्रताप
मेवाड़ को आर्थिक संपन्न बनाने वाला सबसे बड़ा व्यापारिक मार्ग उन्हीं के साम्राज्य से होकर निकलता था । वैश्विक व्यापार के लिए गुजरात को जाने का रास्ता और हज करने के लिए मक्का – मदीना का रास्ता मेवाड़ होकर गुजरता था । इस व्यापारिक मार्ग पर मुगल अपना अधिकार करना चाहते थे । मेवाड़ के पास उस दौर में मांडलगढ़ और जावर दो महत्वपूर्ण खाने थी । जिनसे राज्य को अत्यधिक धनराशि प्राप्त होती थी । चित्तौड़ पर आक्रमण कर मुगलों ने मांडल माइंस पर कब्जा कर लिया । लेकिन जावर माइंस पर कब्जा नहीं कर पाए | इतिहासकार डॉ . भानू कपिल के मुताबिक जावर माइंस से बड़ी मात्रा में चांदी निकलती थी । यही वजह रही कि इतने लम्बे समय तक चली लड़ाई को प्रताप को कुशलता पूर्वक संचालित कर पाये थे ।
राना प्रताप की उत्तम शासन व्यवस्था
डॉ. भानू कपिल के मुताबिक प्रताप के राज्य में उत्तम राशन व्यवस्था , कृषि के क्षेत्र में सामंजस्य स्थापित किया गया था किसानों और आदिवासियों को स्वपोषी अधिकार प्राप्त थे । इसी वजह से युद्ध के समय राज्य के समस्त भीलों ने प्रताप का धन तन मन से साथ दिया ।
जल वितरण की उत्तम व्यवस्था
प्रताप ने जहां – जहां भी राजधानी बनाई , वहां आवरगढ़ , उदय की पहाड़ियां , बलुआ की घाटी , चावंड क्षेत्र से लेकर सुंधा माता तक जल के बड़े बड़े स्त्रोत का निर्माण किया गया । मिट्टी का कटाव रोकने के लिए द्रोण बद्ध तकनीक , क्यारियां बनाकर पानी को इकट्टा किया गया किया ताकि पानी की निरंतर उपलब्धता बनी रहे ।
डा जे के गर्ग
पूर्व संयुक्त निदेशक कालेज शिक्षा जयपुर