वह चाहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण हो, चाहे जन प्रतिनिधियों का मंच हो या सरकारी विज्ञप्तियां या फिर सत्तापक्ष के सांसदों-मंत्रियों के बयान, बार-बार उपलब्धियों के चमकदार आंकड़े देश के आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली होने, दुनिया की महाशक्ति बनने एवं विकास के नये आयामों के सृजन की बातें कर रहे हैं। निश्चित ही देश आजादी के अमृत-काल में बेहतर हुआ है और लगातार बेहतर हो रहा है। इस बात पर खुशी प्रकट की जा सकती है कि जब दुनिया की बड़ी आर्थिक शक्तियों दम तोड़ रही है, तब भारत तमाम विपरीत स्थितियों में स्वयं को न केवल संभाले हुए है बल्कि विकास एवं आर्थिक उन्नति के नये मानक गढ़ रहा है। जिस देश के हम गुलाम रहे, उसे पछाड़ कर हमने दुनिया में पांचवां दर्जा हासिल कर लिया और बहुत जल्दी आशावादी देश-निर्माताओं के अनुसार हम दुनिया में तीसरे नंबर की आर्थिक ताकत होने जा रहे हैं। लेकिन इन सुनहरे दृश्यों के बीच अनेक ऐसी विषमताएं एवं विसंगतियां भी है जो हमें आत्म-मंथन को प्रेरित करती है। जिनमें महंगाई एक सबसे बड़ा मुद्दा है। बेरोजगारी, पर्यावरण असंतुलन, बिगड़ती कानून व्यवस्था एवं नित-नये कानूनों एवं व्यवस्थाओं के बीच दम तोड़ता आम-जनजीवन है।
महंगाई के लगातार बेलगाम बने रहने के बीच इसकी रफ्तार थामने के लिए आरबीआइ ने कई बार रेपो दरों में भी बढ़ोतरी की है। अर्थव्यवस्था के आंकड़े चाहे जितने भी बेहतर स्थिति को दर्शा रहे हों, लेकिन आम लोगों का जीवन स्तर जिन जमीनी कारकों से प्रभावित होता है, उसी के आधार पर आकलन भी सामने आते हैं। पिछले करीब तीन सालों के दौरान कुछ अप्रत्याशित झटकों से उबरने के क्रम में अब अर्थव्यवस्था फिर से रफ्तार पकड़ने लगी है, लेकिन इसके समांतर साधारण लोगों के सामने आज भी आमदनी और क्रयशक्ति के बरक्स जरूरत की वस्तुओं की कीमतें एक चुनौती की तरह बनी हुई हैं। हालांकि सब्जियों के दाम फिलहाल नियंत्रण में हैं, लेकिन दूध, मसालों के अलावा इंर्धन की कीमतों के इजाफे ने फिर मुश्किल पैदा की है। यह स्थिति इसलिए भी खतरे की घंटी है कि आरबीआइ इस समस्या के संदर्भ में फिर रेपो दरों में बढ़ोतरी कर सकता है। यह अलग सवाल है कि महंगाई को नियंत्रित करने के लिए अपनाई गई मौद्रिक नीतियां किस स्तर तक कामयाब हो पाएंगी? बदलते भारत को समझने में नाकाम विपक्ष, समझ ही नहीं पा रहा कि किन मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाएं, उसने अक्सर आमजनता से जुड़े मुद्दों पर उदासीनता ही बरती है।
‘नया भारत-सशक्त भारत’ की बात करने वालों द्वारा हर वक्त कहा जा रहा है कि देश की आर्थिक विकास दर नियंत्रण में है। केंद्र सरकार की नजर में विकास की गति तेज है। राज्य सरकारें भी अपने-अपने राज्य में ऐसा ही दावा कर रही हैं। बोलते हैं उत्पादन बढ़ा है, संपत्ति बढ़ी है। कृषि, उद्योग, व्यापार, परिवहन, शिक्षा, चिकित्सा, संचार, रक्षा, सैन्य साजोसामान, ज्ञान-विज्ञान सभी क्षेत्रों में तरक्की हुई है। राष्ट्र की प्रतिष्ठा और साख दुनिया में बढ़ी है। वे कहते हैं, सहरद से सरहद तक सड़कें बना रहे हैं, शहर बसा रहे हैं, भंडार अन्न से भरे हैं, बाजार माल से पटे हैं। खरीददार भी खूब है। अरबपतियों की कौन कहे, खरबपतियों की संख्या बढ़ रही है और दुनिया में नाम कमा रही है। भारत के डॉक्टर, इंजीनियर, तकनीशियन, वैज्ञानिक, प्रोफेसर, व्यापारी दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। वे सभी ये सूचनाएं बिल्कुल सही-सही दे रहे हैं। दरअसल, उनका कहना यह है कि इक्कीसवीं सदी में ‘नया भारत-विकसित भारत’ को जल्दी-जल्दी पूरा करने के लिए वर्तमान आर्थिक नीतियों को बेरोकटोक चलने दिया जाए और इसके मार्ग में कहीं रूकावटें हैं तो उन्हें शीघ्र खत्म किया जाए। पर इस तमाम तरक्की के समांतर तेजी से पसरती विषमता और कंगाली के क्या कारण हैं, इस पर वे नहीं बोलते, कभी कुछ बोलते हैं तो सही नहीं बोलते। फिर गरीबी एवं महंगाई की बात कौन करेगा?
भारत की आबादी में व्याप्त कंगाली, गरीबी, अभाव, महंगाई बताती है कि आर्थिक विकास की प्रक्रिया पटरी पर नहीं है। भारत में एक ओर धन-संपत्ति और दूसरी ओर गरीबी की कथा शताब्दियों पुरानी है, इक्कीसवीं सदी के भाल पर भी उसके निशां कायम है। एक ही साथ ये दोनों स्थितियां हमारे इतिहास द्वारा प्रमाणित हैं। इसीलिए स्वतंत्रता आंदोलन का सपना नए भारत के निर्माण का था। लेकिन पूर्व सरकारों की विकास की नीतियां इस दिशा के विपरीत रही हैं तो निश्चय ही सत्ता पर हावी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक शक्तियां आजाद भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त लोकतंत्र को धोखा देती रही है। लेकिन अब एक उजली भोर का आभास हो रहा है, भारत खुद विकास के नये कीर्तिमान गढ रहा है, दुनिया की महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीतियां एवं विकास योजनाएं का डंका दुनिया में बज रहा है, लेकिन विकास की वर्तमान चमक-दमक के बरक्स आम जन पर निगाह डालें तो हालत निराशाजनक ही कही जाएगी।
आबादी की दृष्टि से गरीबी की तस्वीर आज भी चिन्ता का बड़ा कारण है। बढ़ती महंगाई में इन लोगों का जीवन निर्वाह कर पाना जटिल से जटिलतर होता जा रहा है। जाहिर है, बाजार में खाने-पीने और रोजमर्रा की अन्य जरूरी वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी ने न केवल मध्यम वर्ग, बल्कि निम्न वर्ग के लोगों के जीवन को जटिल बना दिया है। इन कारणों ने सरकार के माथे पर भी शिकन पैदा की है। वजह यह है कि महंगाई से परेशान लोगों ने लंबे समय से इसकी मार झेलते हुए इसकी वजहों को समझने की कोशिश की और संयम बनाए रखा। लेकिन महामारी के दौरान पूर्णबंदी सहित अन्य कई वजहों से आर्थिक मोर्चे पर छाई मायूसी के बादल भले ही अब छंटने लगे हैं और कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था एक बार फिर सामान्य होने की राह पर है। लेकिन लगातार महंगाई का बढ़ना और इस बढ़ती महंगाई को नियंत्रित रखने के लिये भारतीय रिजर्व बैंक यानी आरबीआइ ने महंगाई की दर को दो से छह फीसद के दायरे में रखने का लक्ष्य तय किया हुआ है। जनवरी से पहले लगातार दो महीने के आंकड़े खुदरा महंगाई दर में कुछ राहत देते दिख रहे थे। लेकिन अब इसका छह फीसद की सीमा को पार करना बताता है कि महंगाई पर काबू पाने के लिए रिजर्व बैंक की ओर नीतिगत दरों में बढ़ोतरी का भी असर ज्यादा कायम नहीं रह सका। जाहिर है, बैंक अपनी ब्याज दरें इससे कुछ ऊंची ही रखते हैं। इस तरह बैंकों से घर, वाहन, कारोबार आदि के लिए कर्ज लेने वालों पर ब्याज का बोझ बढ़ता जा रहा है। मगर दूसरी तरफ उन लोगों को लाभ भी मिलता है, जिन्होंने अपने गाढ़े वक्त के लिए बैंकों में निवेश कर रखा या पैसे जमा कर रखे हैं। इसलिए एकमात्र रेपो दरों में बढ़ोतरी, महंगाई रोकने का कारगर उपाय साबित होगा, दावा नहीं किया जा सकता।
हमें महंगाई बढ़ने की वजहों पर ध्यान देना होगा। भारत में महंगाई बढ़ने की कई वजहें होती हैं। जिस साल मानसून अच्छा नहीं रहता या अनियंत्रित रहता है, उस साल कृषि उपज खराब होती है और खानेपीने की चीजों की कीमतें एकदम से बढ़ जाती हैं। फसलें अच्छी होती हैं, तो कीमतें नीचे आ जाती हैं। गत वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में महंगाई घटने के पीछे मुख्य वजह यही मानी गई। फिलहाल औद्योगिक क्षेत्र में अपेक्षित गति नहीं लौट पाई है। निर्यात का रुख नीचे की तरफ है। कई देशों के साथ व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है। रोजगार के नए अवसर पैदा नहीं हो पा रहे, जिसकी वजह से लोगों की क्रय शक्ति नहीं बढ़ पा रही। तेल की कीमतें अब भी काबू से बाहर हैं। ऐसे में महंगाई की दर अब लोगों की सहन क्षमता से अधिक है। फिर रेपो दरों में बढ़ोतरी का उपाय आजमाने से औद्योगिक और व्यापारिक गतिविधियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिसका सीधा असर देश की विकास दर पर पड़ता है। यानी इस तरह संतुलन बिठाना मुश्किल रहेगा। प्रेषक
(ललित गर्ग)
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