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नेताजी को पद्म विभूषण से बिगड़ सकता है सपा का एम-वाई समीकरण

गेस्ट राइटर
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January 27, 2023

क्या लोकतंत्र की यही खूबी है कि भारतीय जनता पार्टी की उस केंद्र सरकार द्वारा पूर्व सपा प्रमुख और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव जैसे नेता का नाम पद्म विभूषण के लिए चुना गया जिनकी विचारधारा हमेशा भाजपा एकदम विपरीत रही थी। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) हिन्दूवादी राजनीति करती है तो दूसरी ओर मुलायम पर हमेशा तुष्टिकरण की सियासत का आरोप लगता रहा। भाजपा के एजेंडे में हमेशा हिन्दू वोटर आगे रहते हैं तो मुलायम के एजेंडे में मुस्लिम वोटरों को वरीयता दी जाती थी,तो मुलायम अपने को पिछड़ों का नेता भी कहते थे। मुलायम ने मण्डल कमीशन को लागू कराने के लिए खूब राजनीति की थी, जिसके जबाव में हिन्दुओं को एकजुट करने के लिए बीजेपी ने ‘कमंडल’ यानी अयोध्या में राम लला का मंदिर बनाने मुहिम तेज कर दी थी। कौन भूल सकता है 1990 के उस दौर को जब भारतीय जनता पार्टी अयोध्या में प्रभु श्री राम का मंदिर बनाने का संकल्प लेकर पूरे देश में माहौल गरमा रही थी। उसके सबसे ताकतरवर नेता लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा निकाली गई थी,जिसे राजनैतिक फायदे के एि बिहार की तत्कालीन सरकार के मुखिया लालू सरकार ने रोक दिया था।यात्रा को रोककर लालू यादव मुलसमानों को खुश करना चाहते थे।

Sanjay-Saxena
गौरतलब हो, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह की सियासत एक ही जैसी हुआ करती थी,दोनों अपने आप को पिछड़ों का नेता कहते थे तो मुसलमान वोटरों को खुश करने के लिए किसी भी हद तक जाने से परहेज नहीं करते थे। दोनों को ‘एम‘ मतलब मुसलमान और ‘वाई’ यानी यादव वोटरों पर काफी भरोसा था,एम-वाई के सहारे दोनों ने दशकों तक अपने-अपने राज्य में सत्ता सुख भोगा था,जबकि बीजेपी हिन्दू वोटरों के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश में लगी थी। इसके लिए उसने प्रभु राम का सहारा लिया था। 80-90 में दशक में अयोध्या में राम मंदिर बनाने और नहीं बनाने देने की लड़ाई चरम पर थी। देश की सियासत दो हिस्सो में बंट गई थी। कांग्रेस ने इससे अगल-थलग रहने की कोशिश की तो उसका वजूद ही खतरे में पड़ गया।
उसी समय यूपी में तत्कालीन मुलायम सरकार ताल ठोंक रही थी कि वह किसी भी सूरत में बाबरी मस्जिद को बचाएगी,उसका बाल बाका नहीं होने देगी। मुलायम खुले आम मंदिर निर्माण की बात कहने वाली बीजेपी और विश्व हिन्दू परिषद की आड़ लेकर कारसेवकों को चुनौती देते थे,‘अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा।’ ऐसा हुआ भी 1990 में जब कुछ राम भक्त कारसेवक ‘सौगंध राम की खाते हैं मंदिर वहीं बनाएंगे‘ का नारा लगाते हुए अयोध्या पहुंचे तो मौजूदा सरकार के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने विवादित ढांचे को बचाने के लिए उग्र हो रहे कारसेवको पर गोली चलाने से भी परहेज नहीं किया था। जिसमें सरकारी आंकड़ों के साथ 16 कार सेवकों मौत हो गई थी, लेकिन गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार यह संख्या काफी अधिक थी। इतना ही नहीं बाद में भी वह निसंकोच कहते रहे बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए उन्हें और गोली चलाने से भी परहेज नहीं होता। भले ही 16 की जगह 16 सौ कारसेवक मर जाते। मुलायम सिंह यादव ने अपने पूरे जीवन में कभी इस बात का पछतावा नहीं किया कि उनके आदेश के चलते दर्जनों राम भक्त मारे गए थे। इसको लेकर भारतीय जनता पार्टी हमेशा मुलायम सिंह यादव पर आक्रमक भी रहती थी।कारसेवकों पर गोली चलाने के कारण मुलायम सिंह हमेशा बीजेपी के कट्टर राजनैतिक दुश्मन बने रहे तो सियासी रूप से बीजेपी को इसका फायदा भी खूब मिला था।
बहरहाल, मुलायम सिंह जिस तरह की भी राजनीति करते रहे हों,लेकिन इसका उनके व्यक्तिगत जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनके सभी पार्टी के नेताओं से अच्छे संबंध थे। अटल बिहारी बाजपेई से लेकर नरेंद्र मोदी तक से वह अपने दिल की बात खुलकर कहते थे. इतने अच्छे संबंध तो उनके कांग्रेस की चेयरपर्सन सोनिया गांधी तक से नहीं रहे थे। यह सब तब था जबकि मुलायम सिंह की तुष्टिकरण की राजनीति के चलते हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग उनसे हमेशा नाराज रहता था। उनके खिलाफ वोटिंग करता। मुलायम को मुल्ला मुलायम कहकर पुकारता। लेकिन इस सब बातों से बेफिक्र मुलायम हमेशा मुसलमानों के प्रिय बने रहे। यहां तक की कई मुस्लिम नेताओं पर उनकी बिरादरी के लोग इतना भरोसा नहीं करते थे जितना मुलायम सिंह पर उनको भरोसा रहता था। ऐसे नेताजी को जब मोदी सरकार में पद्म विभूषण से नवाजा गया तो सवाल तो उठने ही थे। इसके विपरीत कुछ बुद्धिजीवियों का अपना तर्क है,वे कहते हैं पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री जैसे राष्ट्रीय सम्मान को राजनीतिक दृष्टिकोण से नहीं देखना चाहिए, लेकिन मुलायम को इस सम्मान के दूरगामी राजनैतिक परिणाम निकलने से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर केंद्र सरकार ने वैचारिक तौर पर धुर विरोधी और उत्तर प्रदेश में पिछड़ों की राजनीति के प्रमुख चेहरे रहे पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को पद्म विभूषण सम्मान देने की घोषणा कर लोकसभा चुनाव 2024 के लिए अपने प्रबल प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी के प्रमुख और मुलायम के पुत्र अखिलेश यादव के लिए मुश्किल तो खड़ी कर ही दी है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के सामने भी भाजपा की इस चाल की काट तलाशना आसान नहीं होगा। फिलहाल समाजवादी के कई बड़े नेता और मुलायम की की सांसद बहू डिंपल यादव ने अपने ससुर को दिए गए पद्म विभूषण पुरस्कार को नाकाफी बताते हुए नेताजी को भारत रत्न देने की मांग शुरू कर दी है,जबकि नेताजी को यह सम्मान मिलने से पूर्व कभी भी सपा की तरफ से ऐसी कोई मांग नहीं की गई थी।
खैर,यह कड़वी हकीकत है कि समाजवादी पार्टी का कोई भी नेता है चाहते हुए भी मुलायम को पद्म विभूषण से नवाजा जाने का विरोध नहीं कर सकता है। केंद्र सरकार की तरफ से की गई यह घोषणा उत्तर प्रदेश में भाजपा की पिछड़ों की लामबंदी और उनकों और करीब लाने के मुहिम में मददगार साबित होगी,वहीं समाजवादी पार्टी का एम-वाई समीकरण बिगड़ सकता है। यहां मुलायम से जुड़े एक और घटनाक्रम पर भी चर्चा करना जरूरी है.मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में मंडल और कमंडल की राजनीति के बीच न सिर्फ कांग्रेस का यूपी से बोरिया बिस्तर समेटने में प्रमुख किरदार रहे, बल्कि अयोध्या आंदोलन में उनकी भूमिका ने हिंदुत्व के विचारधारा से जन्मी भाजपा को भी अपने राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने में मदद की थी। धुर विरोधी होने के बावजूद कई मौकों पर मुलायम और भाजपा के बीच काफी नजदीकी रिश्ते भी देखने को मिले,लेकिन मुलायम के रहते सपा का वोट बैंक कभी भी इधर-उधर नहीं हुआ,जैसा अखिलेश काल में देखने को मिल रहा है।
नेताजी मुलायम सिंह के बारे मे कहा जाता है कि वह कई मौकों पर पर्दे के पीछे से बीजेपी की मदद करते रहते थे। कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी की विदेशी नागरिकता का मुद्दा उठाकर उन्हें प्रधानमंत्री बनाने का विरोध हो या लखनऊ का साड़ी कांड, मुलायम ने बतौर मुख्यमंत्री पूरा मामला शांत कराकर लोकसभा चुनाव में पर्दे के पीछे से अटल बिहारी वाजपेयी के मददगार की भूमिका निभाई थी। वैचारिक व राजनीतिक दोनों ही स्तर पर विरोधी होने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भी कई मौकों पर मुलायम की नजदीकी खबरों की सुर्खियां बनती रहीं। 2014 में भरे मंच पर सबके बीच नरेंद्र मोदी के कान के पास जाकर मुलायम के कुछ फुसफुसाने की घटना को कौन भूल सकता है। मोदी ने पहली बार जब शपथ ली तो मुलायम ना केवल शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचे बल्कि मोदी ने भी उनको हाथों-हाथ लिया था। यह भी लोगों को याद ही होगा कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में खुद जिस तरह नरेंद्र मोदी को फिर जीतकर आने और सरकार बनाने की शुभकामनाएं दी थी उसने भी राजनीतिक क्षेत्र में बहुत हलचल पैदा की थी। प्रधानमंत्री मोदी के अपने प्रबल प्रतिद्धंदी मुलायम से इतने घनिष्ट संबंध थे कि मोदी, मुलायम कुनबे में होने वाले परिवारिक फंक्शन में भी मौजूद से चुके थे। यह घटना बताती है कि मुलायम और मोदी कितने करीब थे।
बात समाजवादी पार्टी के प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की मोदी और भाजपा के साथ रिश्तो की जाए तो अखिलेश के बीजेपी के साथ रिश्तो में पिता मुलायम सिंह की तरह बीजेपी के प्रति नरम रुख नजर नहीं आया। इसकी सबसे बड़ी वजह है बीजेपी और मोदी तमाम चुनावों में लगातार अखिलेश को पटखनी दे रहे हैं,जबकि मुलायम सिंह के रहते भारतीय जनता पार्टी कम से कम उत्तर प्रदेश में तो समाजवादी पार्टी पर कभी भारी नहीं पड़ पाई थी। कुल मिलाकर मुलायम को पद्म विभूषण सम्मान अखिलेश और उनके चाहने वालों के लिए गले की फांस साबित हो सकता है।इसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव में सबसे पहली बार देखने को मिल सकता है।

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